Friday, December 19, 2008

जल्दी ही पूरी करनी है, लेकिन कब..

बाकी क्या बचा
एक हाड़-मांस का पुतला
एक हवा अन्दर बाहर पम्प करने वाला ढांचा
या एक दिमाग, एक कंप्यूटर
जिसके दो हिस्से
एक तार्किक, एक रोमांटिक
एक विशुद्ध वैज्ञानिक, एक विक्षिप्त संवेदनशील
दोनों के सहारे घिसट रही है ये लाश
दोनों के सहारे खेल रही है ये जिंदगी
कभी इस पलड़े, कभी उस पलड़े
संभल रही है जिंदगी
दोनों में तालमेल बिठाते बिठाते
चेतना अवचेतन में जा जा कर
लौटती है वापस

अधूरी कवितायें..

कहीं नहीं जा रही है वो
एक जगह जैसे रुक गई है
जम गई है ख्यालों की बर्फ में
कुछ पुरानी, कुछ नई मिली बर्फ
कुछ साफ़, सफ़ेद, ताज़ा बर्फ,
चढ़ गई है कई परतों की तरह
इन जमी बर्फ की परतों में
एक एक साँस बटोरती
मेरे अन्दर मेरी जिंदगी
बाहर निकलने की पीड़ा में
और अन्दर उतरती मेरी जिन्दगी
दरारों से आती रौशनी
जो खुली हुई है थोडी थोडी दूर पर
गहराईयों में, जितना नीचे
उतरो , उतनी छोटी दरार से
आती उतनी धुंधली रौशनी...

Monday, May 12, 2008

उजियारे

हर तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा है.
कुछ साल पहले
उजाले की खोज में निकला,
आज अंधेरों में खो चुका
मेरा वजूद,
जब उजाले की एक किरण से मिला था
कुछ साल पहले,
घर से निकला था
उजाले की आस में
मेरा ईमान,
खाली हाथों में उसी किरण का एक सिरा
पकड़ कर निकल पड़ा था
आखिरा कभी आया ही नहीं हाथ में,
घूमते फिर रहे हैं दर-बदर
अंधेरों को साथ लिए
मेरे अंदेशे,
चारों तरफ़ से अँधेरा ही अँधेरा
बटोरते बटोरते
स्याह, कालिख हो गए हैं
राहों से, मंजिलों से,
मायूसी और खलिश भरते भरते
जोड़ते जोड़ते,
जो मिला उसे खरीदते खरीदते
बिक गए हैं
मेरे उसूल,
उजाले की किरण को
मुट्ठी में बांधे बांधे,
रोशन हैं अब तक
उसी की बदौलत
उसी की खातिर,
घोर अंधियारे के बावजूद
जो घोलता गया कई उजालों को,
जो निगलता गया कई रोशनियों को,
जो मिले थे रास्ते में,
हमसफ़र बने थे
उसी किरण की दुआ के सहारे
कायम हैं अब तक
मेरे दोस्त,
खिसकते चलते है
इन हाथों से भी अब,
कब के बंद बंद वो नूर
घुटे, सिमटे, और संकुचित
बिन साँसों के
उजाले से दूर,
उजाले से मरहूम,
अंधेरों में कैसे साँस ले पाते,
खोलने की हिम्मत ही न कर पाये,
बोलने की ताकत ही न जुटा पाये
बस, किसी तरह जिंदा है,
किसी तरह महफूज़ हैं
मेरे पिंजरे में,
अंधियारे में
मेरे उजाले,
मेरे विश्वास...

Thursday, May 1, 2008

कशमकश

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
ये इश्क न फरहाद का है,
न महिवाल का,
न राँझा का,
तुम शायद शीरी हो, सोनी हो या हीर हो.
मैं वही ख़ुद हूँ
२५ सालों की उम्र से भरा,
उसूलों से, समझदारियों से भरा,
कैसे केवल प्यार कर लूँ
एक निर्णय लेना है.
निर्णय ही है यह, प्यार नहीं है.
रूमानी होना था मुझे,
मुंशी हो रहा हूँ,
नाप तौल रहा हूँ,
समझ-बूझ रहा हूँ.
केवल तुम्हे प्यार करना चाहता हूँ,
केवल तुम्हे चाहना चाहता हूँ,
लेकिन हम ख़ुद भी तो हम नहीं होते-
तमाम लोग, तमाम बातों से हम हैं.
हाँ!! मैं तुम्हे प्यार करता हूँ,
तुम्हारे उस ख़ुद से जो केवल तुम हो,
उस ख़ुद से जो केवल तुम्हारा है,
जिसे न लोगों की जंग लगी है,
न बातों की.
पागल कहोगी मुझे तुम,
जिस ख़ुद का तुम्हे ख़ुद नहीं पता,
उससे मैं प्यार करता हूँ-
तो ख़ुद ही ढूँढ़ कर बिता लूँ जिंदगी उसके साथ,
तुम में ही छुपा बैठा है,
वो तुम्हारा ख़ुद.
उसी से प्यार करता हूँ मैं,
उसी के साथ जिंदगी बिताना चाहता हूँ मैं,
क्या तुम दोगी मेरा साथ,
मेरी...
तुम्हारी....
हमारी जिंदगी में...
बहुत सारे सवाल हैं जिनके जवाब ढूँढने होगे,
हमारी जिंदगी केवल हमारी नहीं है,
तुम्हारे लोग जुड़े हैं इससे,
मेरे लोग जुड़े हैं इससे,
हमारी बातें जुड़ी हैं इससे,
हम सब सुलझा लेंगे 'गर तुम साथ दो,
हम सब सलटा लेंगे 'गर तुम हाथ दो.
हाँ मुझे प्यार है तुमसे,
तुम्हारे उस ख़ुद से.
बहुत कुछ होगा मेरा ऐसा, जिससे नाराज़ हो तुम,
क्यूंकि बहुत कुछ है तुम्हारा ऐसा, जिससे परेशां हूँ मैं,
फिर भी, क्या तुम साथ दोगी मेरा...
हिसाब की कविता है यह,
प्यार की नहीं.
प्यार की कविता, प्यार की बात
बस ऐसे ही कर पा रहा हूँ कि
हाँ!! मुझे प्यार है तुमसे,
तुम्हारे उस ख़ुद से.
या फिर,
क्या प्यार है मुझे तुमसे...
या,
एक साथी की तलाश ख़त्म हुई है,
एक उम्मीद की नई रोशनी मिली है,
एक चेहरा जिसे मैं पढ़ सकूं,
दो आंखें जिनसे मैं देख सकूं,
एक काया जिसमें मैं खो सकूं,
एक तुम जिसमें मैं..
एक तुम जहाँ मैं.
हूँ.
एक आइना जिसमें मेरा अक्स साफ.
बदसूरत, खूबसूरत, ईमानदार, बेईमान,
सारे रूप दिखते हैं मेरे.
फ़िर क्यों न मैं उस आईने के साथ रहूँ.

Tuesday, April 22, 2008

नया - पुराना

कहाँ से शुरू करूँ,
कहाँ से खत्म करूँ..
शुरू में ही ख़त्म हो जाते हैं,
ख़त्म में शुरू हो पाते हैं.
क्यों यह जिंदगी एक कशिश
से ज्यादा एक तलाश बन गई है,
क्यों यह दिन रातों की तरह
गुजरने लग गए हैं.
कहाँ से मांगूं,
कहाँ से पाऊं,
कहाँ से खोजूँ,
उसको कि, ख़ुद को..
यह भी तो नहीं पता!
किसको खोजूँ-
बीच में ही खो-जा-ता हूँ
खो-ज-ने में.
पुराने ही दिन-
उमड़ते रहते हैं रातों में,
पुराने ही लोग-
उमड़ते रहते हैं यादों में,
उन्ही को ढूँढता रहता हूँ
नए लोगों में,
छूट ही नहीं पाता हूँ उनसे,
दूर जा ही नहीं पाता हूँ उनसे,
ख़ुद को जहाँ पाता हूँ..
वहीं वो भी मिल जाते हैं,
वैसे ही मुस्कुराते हुए,
वैसे ही खिलखिलाते हुए,
वैसे ही मदमाते हुए,
वैसे ही बुलाते हुए,
कहाँ तक भागूं...
गानों में, ग़ज़लों में,
तस्वीरों में,
आंखों में, साँसों में
बस गई है जो यादें,
हर जगह, हर सू नज़र आ जाती हैं,
नया कुछ पा ही नहीं पाता हूँ,
पुराने को ही नया बना लेता हूँ.
पुराना ही हो गया हूँ शायद,
रोज़
नया होकर भी-
फिर कल
पुराना हो जाता हूँ...

बियाबान

ख़ुद ही खोलता हूँ ताले-
अकेलेपन के-
बड़ी बड़ी चाबियों से.
घर लौटता हूँ,
या लौटता हूँ
बियाबान में
बियाबान से.
ये अकेलापन दोस्त भी है, दुश्मन भी
इसी अकेलेपन में लिख रहा हूँ,
केवल अकेलापन नहीं
गहरा अकेलापन है,
अंधेरे से सजा,
सर्दी से सिमटा,
बहुत खाली,
इसी खालीपन में मिलते हैं
लफ्ज़, शब्द और वाक्य भी
जो लिख सकूं,
संजो सकूं,
इसी अकेलेपन को कोसता हूँ
जो जोड़ता है मुझको मुझसे,
वरना खोया रहता हूँ
दुनिया में,
दुनिया के वीराने में,
अपने वीराने से भाग कर
छुप जाना चाहता हूँ
संसार के सन्नाटे में
दुबक कर,
फिर,
रोशनी हो गई है!
फिर,
सब खो गया है,
झट से अन्दर से कट गया हूँ,
फिर आ गया हूँ दुनिया में,
जैसे जागा हूँ-
एक अंधेरे में...

Monday, April 21, 2008

आज की आखिरी...

रिश्ते खूनी, मरासिम रूहानी
सबकी अपनी अपनी कहानी,
एक चाय, तमाम सुखन
एक काफ़ी, तमाम अदब
आधे घंटे, कुछ लम्हे
बातें, केवल बातें
यहाँ की बातें,
वहां की बातें,
तेरी बातें,
मेरी बातें,
बातें, केवल बातें.
बातों से बनती बात,
बातों से सजती बात,
जादू सा नशा, या
नशे सा जादू-
बातों का नशा,
बातों का जादू.
बिखरती बातें,
छूटती बातें,
सिसकती बातें,
कसकती बातें,
क्यों हैं!! इतनी बातें..
आदि से बातें,
अंत तक बातें,
चलते चलते बातें,
रुकते रुकते बातें,
बातों से खुलते दिमाग,
बातों से सुलझते दिमाग.
फिर,
बिन बातों की बातें,
बातों के बीच की बातें,
खमोशी की बातें,
आंखों में बातें,
हाथों में बातें,
अंगुलियों में बातें,
कहाँ तक बातें,
बस बातें ही बातें,
और,
इतनी सारी बातों के बाद की,
खमोशी, तन्हाई और याद-
हाल में गुजरते माज़ी की-
चुप्पी बहुत देर तक....
बस,
चुप्पी.

अभी और भी हैं..

खुशी अन्दर छुपी बैठी रहती है
दुबक कर, सिकुड़ कर
कहीं एक छोटे से कोने में,
एक पल नहीं लगता
लेकिन
निकल कर, उचक कर
बाहर आने में,
फ़ैल जाने में,
कतरे कतरे में समाने में.
क्यों नहीं दुबकी रहती है
वहीं कोने में,
जब वापस ही जाना है उसे
उन कोनों में,
इन लम्हों लम्हों के लिए
आकर, होठों को
खिला कर,
क्यों चली जाती है,
और ज्यादा
कसकती है रूह,
एक बार
उसका स्वाद चख लेने के बाद.
यह दर्द ही मीठा लगे है,
नमकीन भी कभी कभी,
पर वो कड़वाहट,
जो खुशी के जाने के बाद,
छूट जाती है
बड़ी देर में जा पाती है,
चिपकी रह जाती है
जीभ पर,
अटकी रह जाती है
गले में,
निकलती ही नहीं.
किसी भी दर्द से फ़िर
बुझती ही नहीं और की प्यास,
किसी भी टीस से,
फिर कोई चेहरा,
कोई रंग,
किसी की एक जोड़ी आंखें,
खींच लाती हैं अन्दर से
अकेलेपन की कमजोरी,
किसी के साथ की उम्मीद,
किसी के हाथ की तसल्ली.
फिर
लड़ते रहते हैं
अपने आप से,
अपनी तन्हाई से,
कि बाहर क्यों नहीं निकलते
हम इस फिजूल की
उठापटक से,
युद्ध,
युद्ध-विराम,
गोष्ठियाँ,
शुरू होते हैं,
ख़त्म होते हैं,
चलती रहती है
एक अनवरत राजनीति,
कूटनीति भी
ख़ुद
अपने आप से ही.
कितना ही उतार लें,
ख़ुद को इन सफ़ेद पन्नों पर,
अन्दर वैसा का वैसा बना रहता है
काला रंग-
स्याह, तनहा, उदास, और
अजीब सा.

शीर्षक बाद में देते रहेंगे...

खोज, तलाश किसकी है
अनवरत
एक मंजिल पाओ तो
दूसरी को भागो
मील के पत्थरों की तरह
हर आने वाले पत्थर का
इंतज़ार
ज्यादा कचोटता है,
बनिस्पत,
जा चुके पत्थर को देख कर होने वाला
संतोष.
क्यों, जितना मिल जाए उसमें
खुश
नहीं है हम,
और क्यों चाहिए,
जब, और फिर भी चाहेंगे,
'और' की भूख कभी ख़त्म न होगी,
यही भूख जिंदगी है,
हर आने वाले कल के लिए
नई भूख चाहिए, नया लक्ष्य चाहिए
फिलहाल इस उम्र में अस्वीकृत है यह
की हर दिन एक सा गुजरे
इसी भूख के कारण शायद
विचार आना बंद हैं
तुकें बनना बंद हैं,
मिसरे मुकम्मल होना बंद हैं
जड़ हो चुके हैं विचार
जड़ हो चुकी है सोच
हाँ, सहारा चला गया है
जिसके बलबूते चढ़ता जाता था
शेरों की सीढियां
कविताओं की मंजिलें
प्यार में होना भी पूरा कर देता है,
अन्दर भरते खला के बावजूद
एक सहारा सा रहता है
हर दिन के लिए.

अभी फिलहाल प्रकाशित कराने दीजिये...

कविता क्यों लिखना चाहता हूँ मैं,
अपने आप को जानने के लिए
दुनिया को महसूस करने के लिए
रिश्तों की कशिश को परखने के लिए
विचारों को बांधने के लिए
किसलिए, आख़िर किसलिए
या फ़िर इन सबसे अलग
ये पता चलने के बाद कि
कुछ तो भावुकता भरी, मादकता भरी
स्याही उकेर सकता हूँ,
अपनी शोहरत के लिए
दूसरों के दिल में जगह बनाने के लिए.
अभी तक उस शोहरत की आस
नहीं है,
उस चाहत की आस कि
अनजाने लोग भी मुझे जाने,
बस इतना ही चाहा है कि
परिचित लोग ही मुझे जाने.
जाने कि आख़िर क्या हूँ मैं
क्या सोचता हूँ मैं
किस हद तक सोचता हूँ मैं
क्यों सोचता हूँ मैं
वो भी यूं कि अभिमान सा है
'सा' नहीं 'है' - अपनी सोच पर
जो अपरिपक्व, नादान, और प्रतिक्रियात्मक
विचारशील और विध्वंसक भी है.
लेकिन यह भी है कि योगदान करना
चाहता हूँ, निस्वार्थ, निरंकुश
इस समाज में अपना भी अंश देना चाहता हूँ.

सक्रिय फिर से.. पहले की लिखी रखीं हैं...

जिसे, जब, जैसे
होना था,
वो, तब,
नहीं है,
शेष किसे, कब कैसे
होना है,
फर्क पड़ता है?
नहीं
नहीं ही पड़ता है
कोई हो के भी नहीं,
तुम भी नहीं,
ऐसा क्यों है !!

Thursday, January 3, 2008

रास्ते और मंजिल

सुख, उल्लास, आनंद भी, सबसे भरा हुआ है मन। लेकिन तुरंत ही यह विचार मन में आ गया है कि क्षणिक है सब। कल, परसों या शायद थोड़ी देर में ही वापस एक उदासी की परत छा जायेगी मन पर। लेकिन जो उत्साह अभी बना हुआ है लगता है कि काफी कुछ होगा, हो रहा है, होता रहेगा..और इतना लिखते लिखते ही उल्लास गायब हो गया है। फिर से कल की चिंता आ गयी है। शायद कुछ ज्यादा ही करने लग गया हूँ कल की चिंता। क्यों। पहले तो ऐसा नहीं होता था। और अभी मन हो आया है की यह लिखा हुआ भी मिटा दूँ। कुछ मतलब नहीं है इस लिखे हुए का। लेकिन यही मेरे मन की उथल पुथल को समझाने का, सुलझाने का जरिया बनेगा। एक लंबी सांस लेके छोड़ दी है। क्यों, किसके लिए, अपने लिए, दूसरों के लिए, अपनी नाकामियों के लिए, अन्दर भरी हुई खला के लिए। इस खला का क्यों करूं। कहाँ ले जा के डुबो दूँ कि अन्दर कुछ भर जाये। एक सहारा मिलता है, लगता है कि कोई तो साहिल नज़र आ रहा है, लेकिन एक बड़ी सी लहर आ कर उस साहिल को भी लील जाती है। रास्ते को ही मंजिल बनाना पड़ेगा।
आवारा पंछी. कहीं ठिकाना ही नहीं मिलता था उसको. इस पेड़ से उस पेड़, उस पेड़ से उस पेड़, बस यही करता रहता था. कितने ही साथी मिले, कितने ही आशियाने मिले, सब एक एक कर छूटते चले गए. कहीं भी मन नहीं रमा उसका. कभी घर की, अपने वतन की याद सताती थी उसे, तो कभी नए देश घूमने की चाह उसका मन विचलित करती रहती थी. एक दिन, दो दिन तो चैन से रहता, फिर तीसरे दिन उसके मन को भी पंख लग जाते. काफ़ी समय से अकेला भी पड़ गया था वो. उसके सारे संगी साथी उसे छोड़ कर जाने कहाँ कहाँ चले गए थे, नए सफर पर, नई मंजिलों की तलाश में, नए आशियानों की खोज में. वो वहीं रहा. उसका भी इस इलाके से जाने का मन हो रहा था, लेकिन कोई ठोस कारण नहीं था उसके पास. सब था उसके पास, खाने को चारा, ठीक ठाक सा घोंसला, घूमने को खुला आसमान, नए पंछी, फिर भी कुछ था जो उसका मन कचोटता रहता था. कई कई दिन तो इसी चिंता में निकाल देता की आख़िर यह है क्या जिसने बात ने उसे परेशान रखा है. क्यों नहीं उसका मन शांत होकर कहीं रम पाता.