कहाँ से शुरू करूँ,
कहाँ से खत्म करूँ..
शुरू में ही ख़त्म हो जाते हैं,
ख़त्म में शुरू हो पाते हैं.
क्यों यह जिंदगी एक कशिश
से ज्यादा एक तलाश बन गई है,
क्यों यह दिन रातों की तरह
गुजरने लग गए हैं.
कहाँ से मांगूं,
कहाँ से पाऊं,
कहाँ से खोजूँ,
उसको कि, ख़ुद को..
यह भी तो नहीं पता!
किसको खोजूँ-
बीच में ही खो-जा-ता हूँ
खो-ज-ने में.
पुराने ही दिन-
उमड़ते रहते हैं रातों में,
पुराने ही लोग-
उमड़ते रहते हैं यादों में,
उन्ही को ढूँढता रहता हूँ
नए लोगों में,
छूट ही नहीं पाता हूँ उनसे,
दूर जा ही नहीं पाता हूँ उनसे,
ख़ुद को जहाँ पाता हूँ..
वहीं वो भी मिल जाते हैं,
वैसे ही मुस्कुराते हुए,
वैसे ही खिलखिलाते हुए,
वैसे ही मदमाते हुए,
वैसे ही बुलाते हुए,
कहाँ तक भागूं...
गानों में, ग़ज़लों में,
तस्वीरों में,
आंखों में, साँसों में
बस गई है जो यादें,
हर जगह, हर सू नज़र आ जाती हैं,
नया कुछ पा ही नहीं पाता हूँ,
पुराने को ही नया बना लेता हूँ.
पुराना ही हो गया हूँ शायद,
रोज़
नया होकर भी-
फिर कल
पुराना हो जाता हूँ...
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