Friday, December 19, 2008

जल्दी ही पूरी करनी है, लेकिन कब..

बाकी क्या बचा
एक हाड़-मांस का पुतला
एक हवा अन्दर बाहर पम्प करने वाला ढांचा
या एक दिमाग, एक कंप्यूटर
जिसके दो हिस्से
एक तार्किक, एक रोमांटिक
एक विशुद्ध वैज्ञानिक, एक विक्षिप्त संवेदनशील
दोनों के सहारे घिसट रही है ये लाश
दोनों के सहारे खेल रही है ये जिंदगी
कभी इस पलड़े, कभी उस पलड़े
संभल रही है जिंदगी
दोनों में तालमेल बिठाते बिठाते
चेतना अवचेतन में जा जा कर
लौटती है वापस

अधूरी कवितायें..

कहीं नहीं जा रही है वो
एक जगह जैसे रुक गई है
जम गई है ख्यालों की बर्फ में
कुछ पुरानी, कुछ नई मिली बर्फ
कुछ साफ़, सफ़ेद, ताज़ा बर्फ,
चढ़ गई है कई परतों की तरह
इन जमी बर्फ की परतों में
एक एक साँस बटोरती
मेरे अन्दर मेरी जिंदगी
बाहर निकलने की पीड़ा में
और अन्दर उतरती मेरी जिन्दगी
दरारों से आती रौशनी
जो खुली हुई है थोडी थोडी दूर पर
गहराईयों में, जितना नीचे
उतरो , उतनी छोटी दरार से
आती उतनी धुंधली रौशनी...