Thursday, May 1, 2008

कशमकश

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
ये इश्क न फरहाद का है,
न महिवाल का,
न राँझा का,
तुम शायद शीरी हो, सोनी हो या हीर हो.
मैं वही ख़ुद हूँ
२५ सालों की उम्र से भरा,
उसूलों से, समझदारियों से भरा,
कैसे केवल प्यार कर लूँ
एक निर्णय लेना है.
निर्णय ही है यह, प्यार नहीं है.
रूमानी होना था मुझे,
मुंशी हो रहा हूँ,
नाप तौल रहा हूँ,
समझ-बूझ रहा हूँ.
केवल तुम्हे प्यार करना चाहता हूँ,
केवल तुम्हे चाहना चाहता हूँ,
लेकिन हम ख़ुद भी तो हम नहीं होते-
तमाम लोग, तमाम बातों से हम हैं.
हाँ!! मैं तुम्हे प्यार करता हूँ,
तुम्हारे उस ख़ुद से जो केवल तुम हो,
उस ख़ुद से जो केवल तुम्हारा है,
जिसे न लोगों की जंग लगी है,
न बातों की.
पागल कहोगी मुझे तुम,
जिस ख़ुद का तुम्हे ख़ुद नहीं पता,
उससे मैं प्यार करता हूँ-
तो ख़ुद ही ढूँढ़ कर बिता लूँ जिंदगी उसके साथ,
तुम में ही छुपा बैठा है,
वो तुम्हारा ख़ुद.
उसी से प्यार करता हूँ मैं,
उसी के साथ जिंदगी बिताना चाहता हूँ मैं,
क्या तुम दोगी मेरा साथ,
मेरी...
तुम्हारी....
हमारी जिंदगी में...
बहुत सारे सवाल हैं जिनके जवाब ढूँढने होगे,
हमारी जिंदगी केवल हमारी नहीं है,
तुम्हारे लोग जुड़े हैं इससे,
मेरे लोग जुड़े हैं इससे,
हमारी बातें जुड़ी हैं इससे,
हम सब सुलझा लेंगे 'गर तुम साथ दो,
हम सब सलटा लेंगे 'गर तुम हाथ दो.
हाँ मुझे प्यार है तुमसे,
तुम्हारे उस ख़ुद से.
बहुत कुछ होगा मेरा ऐसा, जिससे नाराज़ हो तुम,
क्यूंकि बहुत कुछ है तुम्हारा ऐसा, जिससे परेशां हूँ मैं,
फिर भी, क्या तुम साथ दोगी मेरा...
हिसाब की कविता है यह,
प्यार की नहीं.
प्यार की कविता, प्यार की बात
बस ऐसे ही कर पा रहा हूँ कि
हाँ!! मुझे प्यार है तुमसे,
तुम्हारे उस ख़ुद से.
या फिर,
क्या प्यार है मुझे तुमसे...
या,
एक साथी की तलाश ख़त्म हुई है,
एक उम्मीद की नई रोशनी मिली है,
एक चेहरा जिसे मैं पढ़ सकूं,
दो आंखें जिनसे मैं देख सकूं,
एक काया जिसमें मैं खो सकूं,
एक तुम जिसमें मैं..
एक तुम जहाँ मैं.
हूँ.
एक आइना जिसमें मेरा अक्स साफ.
बदसूरत, खूबसूरत, ईमानदार, बेईमान,
सारे रूप दिखते हैं मेरे.
फ़िर क्यों न मैं उस आईने के साथ रहूँ.

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