Thursday, January 3, 2008

रास्ते और मंजिल

सुख, उल्लास, आनंद भी, सबसे भरा हुआ है मन। लेकिन तुरंत ही यह विचार मन में आ गया है कि क्षणिक है सब। कल, परसों या शायद थोड़ी देर में ही वापस एक उदासी की परत छा जायेगी मन पर। लेकिन जो उत्साह अभी बना हुआ है लगता है कि काफी कुछ होगा, हो रहा है, होता रहेगा..और इतना लिखते लिखते ही उल्लास गायब हो गया है। फिर से कल की चिंता आ गयी है। शायद कुछ ज्यादा ही करने लग गया हूँ कल की चिंता। क्यों। पहले तो ऐसा नहीं होता था। और अभी मन हो आया है की यह लिखा हुआ भी मिटा दूँ। कुछ मतलब नहीं है इस लिखे हुए का। लेकिन यही मेरे मन की उथल पुथल को समझाने का, सुलझाने का जरिया बनेगा। एक लंबी सांस लेके छोड़ दी है। क्यों, किसके लिए, अपने लिए, दूसरों के लिए, अपनी नाकामियों के लिए, अन्दर भरी हुई खला के लिए। इस खला का क्यों करूं। कहाँ ले जा के डुबो दूँ कि अन्दर कुछ भर जाये। एक सहारा मिलता है, लगता है कि कोई तो साहिल नज़र आ रहा है, लेकिन एक बड़ी सी लहर आ कर उस साहिल को भी लील जाती है। रास्ते को ही मंजिल बनाना पड़ेगा।
आवारा पंछी. कहीं ठिकाना ही नहीं मिलता था उसको. इस पेड़ से उस पेड़, उस पेड़ से उस पेड़, बस यही करता रहता था. कितने ही साथी मिले, कितने ही आशियाने मिले, सब एक एक कर छूटते चले गए. कहीं भी मन नहीं रमा उसका. कभी घर की, अपने वतन की याद सताती थी उसे, तो कभी नए देश घूमने की चाह उसका मन विचलित करती रहती थी. एक दिन, दो दिन तो चैन से रहता, फिर तीसरे दिन उसके मन को भी पंख लग जाते. काफ़ी समय से अकेला भी पड़ गया था वो. उसके सारे संगी साथी उसे छोड़ कर जाने कहाँ कहाँ चले गए थे, नए सफर पर, नई मंजिलों की तलाश में, नए आशियानों की खोज में. वो वहीं रहा. उसका भी इस इलाके से जाने का मन हो रहा था, लेकिन कोई ठोस कारण नहीं था उसके पास. सब था उसके पास, खाने को चारा, ठीक ठाक सा घोंसला, घूमने को खुला आसमान, नए पंछी, फिर भी कुछ था जो उसका मन कचोटता रहता था. कई कई दिन तो इसी चिंता में निकाल देता की आख़िर यह है क्या जिसने बात ने उसे परेशान रखा है. क्यों नहीं उसका मन शांत होकर कहीं रम पाता.