Wednesday, November 28, 2007

एक कहानी : समझौता - लेखक : "मुक्तिबोध"

अंधेरे से भरी, धुंधली, संकरी प्रदीर्घ कॉरिडोर और पत्थर की दीवारें. घन की गहरी कार्निस पर एक जगह कबूतरों का घोंसला और कभी कभी गूंज उठने वाली गुटरगूं, जो शाम के छः बजे के सूने को और भी गहरा कर देती है. सूनी कॉरिडोर घूमकर एक जीने तक पहुंचती है. जीना ऊपर चढ़ता है, बीच में रुकता है और फिर मुड़कर एक दूसरी प्रदीर्घ कॉरिडोर में समाप्त होता है.
सभी कमरे बंद हैं. दरवाजों पर ताले लगे हैं. एक अजीब निर्जन, उदास सूनापन इस दूसरी मंजिल की कॉरिडोर में फैला हुआ है. मैं तेजी से बढ़ रहा हूँ. मेरी चप्पलों की आवाज नहीं होती. नीचे मार्ग पर टाट का मैटिंग किया गया है.
दूर, सिर्फ़ एक कमरा खुला है. भीतर से कॉरिडोर में रोशनी का एक ख्याल फैला हुआ है. रोशनी नहीं, क्यूंकि कमरे पर एक हरा परदा है. पहुँचने पर बाहर, धुंधले अंधेरे में एक आदमी बैठा हुआ दिखाई देता है. मैं उसकी परवाह नहीं करता. आगे बढ़ता हूँ और भीतर घुस जाता हूँ.
कमरा जगमगा रहा है. मेरी आंखों में रोशनी भर जाती है. एक व्यक्ति काला ऊनी कोट पहने, जिसके सामने टेबल पर कागज़ बिखरे पड़े हैं, अलसाई-थकी आंखें पोंछता हुआ मुस्कुराकर मुझसे कहता है, "आईये हुज़ूर, आईये !"मेरा जी धड़क कर रह जाता है, हुज़ूर शब्द पर मुझे आपत्ति है. उसमें गहरा व्यंग्य है. उसमें एक भीतरी मार है. मैं कन्धों पर फटी अपनी शर्ट के बारे में सचेत हो उठता हूँ. कमर की जगह पैंट तानने के लिए बेल्ट-नुमा पट्टी के लिए जो बटन लगाया गया था, उसकी गैरहाजिरी में मेरी आत्मा भड़क उठती है.
और मैं ईर्ष्या से उस व्यक्ति के नए फैशनेबल कोट की और देखने लगता हूँ और जवान चहरे की और मुस्कान भरकर कहता हूँ, "आपका काम ख़त्म हुआ !"
मेरी बात में बनावटी मैत्री का रंग है. उसका काम ख़त्म हुआ या नहीं, इससे मुझे मतलब ?उसकी अलसाई थकान के दौर में वहीं मेरा पहुँचना शायद उसे अच्छा लगा. शायद अपने काम में उसकी जो उकताहट थी, वह मेरे आने से भंग हुई. अकेलेपन से अपनी मुक्ति से प्रसन्न होकर उसने फैलते हुए कहा, "बैठो, बैठो, कुर्सी लो !"
उसका वचन सुनकर मैं धीरे धीरे कुर्सी पर बैठा. यदि कोई बड़ा अधिकारी छोटे को - बहुत छोटे को कुर्सी पर बैठने को कहे तो अनुशासन कैसे रहेगा ! अनुशासन, हमारे लिए ! मुझे एक लोहे का शिकंजा जकडे हुए है, कब छूटूंगा मैं इस शिकंजे से ? खैर शिकंजे को ढीला कर, जरा आराम ही कर लूँ.
मैं धीरे धीरे कुर्सी पर बैठता हूँ. वह अफसर फ़िर फाइलों में डूब जाता है. दो पलों का विश्राम मुझे अच्छा लगता है. मैं कमरे का अध्ययन करने लगता हूँ. वही कमरा, मेरा जाना पहचाना, जिसकी हर चीज़ मेरी जमाई है. मेरी देख-रेख में उसका पूरा इंतजाम हुआ है. खूबसूरत आरामकुर्सियाँ, सुंदर टेबल, परदे, अलमारियां, फाइलें रखने का साइडरैक आदि आदि. इस समय वह कमरा अस्त-व्यस्त लगता है, और बेहद पराया. बिजली की रोशनी में, उसकी अस्त-व्यस्तता चमक रही है, उसका परायापन जगमगा रहा है.
मैं एक गहरी साँस भरता हूँ और उसे धीरे धीरे छोड़ता हूँ. मुझे ह्रदय-रोग हो गया है - गुस्से का, क्षोभ का, खीज का, और अविवेकपूर्ण कुछ भी कर डालने की राक्षसी क्षमता का.
मेरे पास पिस्तौल है. और, मान लीजिये, मैं उस व्यक्ति का- जो मेरा अफसर है, मित्र है, बंधु है-अब खून कर डालता हूँ. लेकिन पिस्तौल अच्छी है, गोली भी अच्छी है; पर काम - काम बुरा है. उस बेचारे का क्या गुनाह है ? वह तो मशीन का एक पुर्जा है. इस मशीन में ग़लत जगह हाथ आते ही वह कट जायेगा, आदमी उसमें फंस कर कुचल जायेगा, जैसे बैंगन ! सबसे अच्छा है कि एकाएक आसमान में हवाई जहाज मंडराये, बमबारी हो, और यह कमरा ढह पड़े, जिसमें मैं और वह दोनों ख़त्म हो जाएँ. अलबत्ता, भूकंप भी यह काम कर सकता है.
फाइल से सर ऊंचा कर के उसने कहा, "भाई बड़ा मुश्किल है. " और उसने घंटी बजायी.

एक ढीला-ढाला, बेवकूफ सा प्रतीत होने वाला स्थूलकाय व्यक्ति सामने आ खड़ा हुआ.
अफसर ने, जिसका नाम मेहरबानसिंह था, भौंहें ऊँची करके सप्रश्न् भाव से कहा, "कैंटीन से दो कप गरम चाय ले आओ. " मेरी तरफ़ ध्यान से देखकर उससे कहा, "कुछ खाने को भी लेते आना. "
चपरासी की आवाज ऊंची थी. उसने गरजकर कहा, "कैंटीन बंद हो गई. "
"देखो, खुली होगी, अभी छः नहीं बजे होंगे. "
चाय और अल्पाहार के प्रस्ताव से मेरा दिमाग कुछ ठंडा हुआ. ज़रा दिल में रोशनी फैली. आदमियत सब जगह है. इंसानियत का ठेका मैंने ही नहीं लिया. मेरा मस्तिष्क का चक्र घूमा. पैवलॅव ने ठीक कहा था - 'Conditioned Reflex' ! ख्याल भी एक Reflex action है, लेकिन मुझे पैवलॅव कि दाढ़ी अच्छी लगती है. उससे भी ज्यादा प्रिय, उसकी दयालु, ध्यान भरी आंखें. उसका चित्र मेरे सामने तैर आता है.
मैं कुर्सी पर बैठे बैठे उकता जाता हूँ. कोई घटना होने वाली है, कोई बहुत बुरी घटना. लेकिन मुझे उसका इंतजार नहीं है. मैं उसके परे चला गया. कुछ भी कर लूँगा. मेहनत, मजदूरी. फांसी पर तो चढ़ा नहीं देंगे. लेकिन, एक दॉस्तॉएवस्की था, जो फांसी पर चढ़ा और जिंदा उतर गया. जी हाँ, एन मौके पर ज़ार ने हुक्म दे दिया ! देखिये, भाग्य ऐसा होता है.
मैं कॉरिडोर में जाता हूँ वहाँ अब घुप अँधेरा हो गया. मैं एक जगह ठिठक जाता हूँ, जहाँ से जीना घूमकर नीचे उतरता है. यह एक संकरी आँगननुमा जगह है. मैं रेलिंग के पास खड़ा हो जाता हूँ. नीचे कूद पडूँ तो ! बस काम तमाम हो जायेगा ! जान चली जायेगी, फ़िर सब ख़त्म, अपमान ख़त्म, भूख ख़त्म..,,लेकिन प्यार भी ख़त्म हो जायेगा, उसको सुरक्षित रखना चाहिए...और फ़िर चाय आ रही है ! चाय पीकर ही क्यों न जान दी जाए, तृप्त होकर, सबसे पूछकर !
बिल्ली जैसे दूध की अलमारी की तरफ़ नज़र दौड़ाती है, उसी तरह मैंने बिजली के बटन के लिए अंधेरे भरी पत्थर की दीवार पर नज़र दौड़ायी. हाँ, वो वहीं है. बटन को दबाया. रोशनी ने आँख खोली. लेकिन प्रकाश नाराज़-नाराज़ सा, उकताया-उकताया सा फैला.

चलो, मैंने सोचा, चपरासी को रास्ता साफ दिखेगा.
मैंने एक और के दरवाजे से प्रवेश किया. दूसरी और के दरवाजे से चपरासी ने. मेरा चेहरा खुला. मेहरबानसिंह, नाटे से, काले से, कभी फीस की माफ़ी के लिए हरिजन, कभी गोंड-ठाकुर, अलमस्त और बेफिक्रे, ज़बान के तेज़, दिल से साफ, अफसरी बू, और आदमियत की गंध ! और एक छोटा सा चौकोर चेहरा !

उन्होंने हाथ ऊंचे कर, देह मोड़कर बदन से आलस मुक्त किया और एक लम्बी जमुहाई ली.

मेरा ध्यान चाय की ट्रे पर था. उनका ध्यान कागज़ पर.
उन्होंने कहा, "करो दस्तखत...यहाँ...यहाँ.. !"
मैं धीरे धीरे कुर्सी पर बैठा. आंखें कागज़ पर गड़ायी. भवें सिकुड़ीं, और मैं पूरा-का-पूरा कागज़ में समा गया.
मैंने चिढ़कर अंग्रेजी में कहा, "यह क्या है ?"
उन्होंने दृढ़ स्वर में जवाब दिया, "इससे ज्यादा कुछ नहीं हो सकता. "
विरोध प्रदर्शित कराने के लिए मैं बेचैनी से कुर्सी से उठने लगा तो उन्होंने आवाज़ में नरमी लाकर कहा, "भाई मेरे, तुम्ही बताओ, इससे ज़्यादा क्या हो सकता है ! दिमाग हाजिर करो, रास्ता सुझाओ !"
"लेकिन, मुझे 'स्केपगोट' बनाया जा रहा है, मैंने क्या किया !"
चाय के कप में शक्कर डालते हुए उन्होंने, एक और कागज़ मेरे सामने सरका दिया और कहा, " पढ़ लीजिये !'
मुझे उस कागज़ को पढ़ने को कोई इच्छा नहीं थी. चाहे जो अफसर मुझे चाहे जो काम नहीं कह सकता. मेरा काम बंधा हुआ है.
नियम के विरुद्ध मैं नहीं था, वह था. लेकिन, उसने मुझे जब डांटकर कहा तो मैंने पहले अदब से, फिर ठंडक से, फ़िर खीजकर एक जोरदार जवाब दिया. उस जवाब में नासमझ और नाख्वांद जैसे शब्द जरुर थे. लेकिन साइन्टिफिकली स्पीकिंग, गलती उसकी थी, मेरी नहीं ! फिर गुस्से में मैं नहीं था. एक जूनियर आदमी मेरे सिर पर बैठा दिया गया, जरा देखो तो. इसीलिए कि वह फलां-फलां का ख़ास आदमी, वह ख़ास ख़ास काम करता था. उस शख्स के साथ मेरी, 'ह्यूमन डिफिकल्टी' थी.
मेहरबानसिंह ने कहा, "भाई गलती मेरी भी थी, जो मैंने यह काम तुम्हारे सुपुर्द करने के बजाय, उसको सौंप दिया. लेकिन चूँकि फाइलें दौड़ गई हैं, इसलिए एक्शन तो लेना ही पड़ेगा. और उसमें है क्या ! वार्निंग है, सिर्फ़ हिदायत !"
हम दोनों चाय पीने लगे, और बीच-बीच में खाते जाते.

एकाएक उन्हें जोर की गगनभेदी हँसी आई. मैं विस्मित होकर देखने लगा. जब उनकी हँसी का आलोड़न ख़त्म होने को था की उन्होंने कहा, " लो मैं तुम्हे एक कहानी सुनाता हूँ. तुम अच्छे प्रसिद्ध लेखक हो. सुनो और गुनो !"
और मेहरबानसिंह का छोटा सा चेहरा गंभीर होकर कहानी सुनाने लगा.
-मुसीबत आती है तो चारों और से. ज़िंदगी में अकेला, निस्संग और बी.ऐ. पास एक व्यक्ति. नाम नहीं बताऊंगा.
कई दिनों से आधा पेट. शरीर से कमजोर. ज़िंदगी से निराश. काम नहीं मिलता. शनि का चक्कर.
हर भले आदमी से काम मांगता है. लोग सहायता भी करते हैं. लेकिन उससे दो जून खाना भी नहीं मिलता, काम नहीं मिलता, नौकरी नहीं मिलती. चपरासीगिरी की तलाश है, लेकिन वह भी लापता. कप-बाशी धोने और चाय बनाने के काम से लगता है कि दो दिनों के बाद अलग कर दिया जाता है. जेब में बी.ऐ. का सरटिफ़िकेट है. लेकिन, किस काम का !
मैंने सोचा, मेहरबानसिंह अपनी जिंदगी की कथा कह रहे हैं. मुझे मालूम था कि मेरे मित्र के बचपन और नौजवानी के दिन अच्छे नहीं गए हैं. मैं और ध्यान से सुनने लगता हूँ.
मेहरबानसिंह का छोटा-सा काला चौकोर चेहरा भावना से विद्रूप हो जाता है. वह मुझसे देखा नहीं जाता. मेहरबान सिंह कहता है - नौकरी भी कौन दे ? नीचे कि श्रेणी में बड़ी स्पर्धा है. चेहरे से वह व्यक्ति एकदम कुलीन, सुंदर और रौबदार, किंतु घिघियाया हुआ. नीचे की श्रेणी में जो अल्कतियापन है, गाली गलौज की जो प्रेमपदावली है, फटेहाल ज़िंदगी की जो कठोर, विद्रूप, भूखी, भंयंकर सभ्यता है, वहाँ वह कैसे टिके ! कमजोर आदमी, रिक्शा कैसे चलाये !
नीचे की श्रेणी उस पर विश्वास नहीं कर पाती. उसे मारने दौड़ती है. उसका वहाँ टिकना मुश्किल है. दरमियानी वर्ग में वह जा नहीं सकता. कैसे जाए, किससे पास जाए ! जब तक उसकी जेब में एक रूपया न हो.
मेहरबानसिंह के गले में आंसू का काँटा अटक गया. मैं अब समझता हूँ, मुझे खूब तजुर्बा है, इस आशय से मैंने उनकी तरफ़ देखा और सिर हिला दिया.उन्होंने सूने में, अजीब-से सूने में, निगाह गड़ाते हुए कहा - शायद उनका लक्ष्य आंखों-ही-आंखों में आंसू सोख लेने का था, जिन्हें वे बताना नहीं चाहते थे - आत्महत्या करना आसान नहीं है. लेकिन छः लाख की जनसंख्या में सिर्फ़ दो माहवार, यानी साल में चौबीस ! दूसरे ज़रियों से कि गई आत्महत्याएं मिलाई जाएँ तो सालाना पचास से ज़्यादा नहीं होगीं. यह भी बहुत बड़ी संख्या है. आत्महत्या आसान नहीं है.
उनके चेहरे पर काला बादल छा गया. अब वे पहचान में नहीं आते थे. अब वे मेरे अफसर भी नहीं रहे, मेरे परिचित भी नहीं. सिर्फ़ एक अजनबी - एक भयानक अजनबी. मेरा भी दम घुटने लगा. मैंने सोचा, कहाँ का किस्सा उन्होंने छेड़ दिया ! मेहरबांसिंह ने मेरी और कहानीकार की निगाह से देखा और कहा कि उन दिनों शहर में एक सर्कस आया हुआ था. बड़ी धूमधाम थी. बड़ी चहल-पहल.रोज़ सुबह-शाम सर्कस का प्रोसशन निकलता, बाजे-गाजे के साथ बैंड-बाजे के साथ. जुलूस में एक मोटर का ठेला भी चलता, खुला ठेला, प्लेटफॉर्म-नुमा ! उस पर रंग-बिरंगे, अजीबोगरीब जोकर विचित्र हावभाव करते हुए नाचते रहते. लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहते.
-जो इक लंबे अरसे से बेघरबार और बेकार रहा है, उसकी प्रवृत्ति शायद आपको मालुम नहीं. वह व्यक्ति क्रांतिकारक नहीं होता, वह खासतौर से...घुमंतू 'जिप्सी' होता है. उसे चाहे जो वस्तु, दृश्य, घटना, दुर्घटना, यात्रा, बारिश, कष्ट, दुःख, सुंदर चेहरा, बेवकूफ चेहरा, मलिनता, कोढ़, सब तमाशे-नुमा मालूम होता है. चाहे जो..खींचता है..आकर्षित करता है, और कभी-कभी पैर उधर चल पड़ते हैं.
एक आईडिया, एक ख्याल आंखों के सामने आया. जोकर होना क्या बुरा है ! ज़िंदगी - एक बड़ा भारी मजाक है; और तो और, जोकर अपनी भावनाएं व्यक्त कर सकता है. चपत जड़ सकता है. एक-दूसरे को लात मार सकता है, और, फिर भी, कोई दुर्भावना नहीं है. वह हंस सकता है, हंसा सकता है. उसके ह्रदय में इतनी सामर्थ्य है.
मेहरबानसिंह ने मेरी और अर्थ-भरी दृष्टि से देखकर कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि जोकर का काम करना एक पर्वर्शन - अस्वाभाविक प्रवृत्ति है. मनुष्य की सारी सभ्यता के पूरे ढाँचे चरमाराकर गिर पड़ते हैं, चूर-चूर हो जाते हैं. लेकिन असभ्यता इतनी बुरी चीज़ नहीं है, जितना कि आप समझते हैं. उसमें इन्स्टिक्ट का, प्रवृत्ति का खुला खेल है, आँख-मिचौनी नहीं. लेकिन, अलबत्ता पर्वर्शन जरुर है. पर्वर्शन इसलिए नहीं कि मनुष्य परवर्ट है, वरन इसलिए कि पर्वर्शन के प्रति उसका विशेष आकर्षण है, या कभी-कभी हो जाता है. अपने इन्स्टिक्ट के खुले खेल के लिए असभ्य और बर्बर वृत्ति के सामर्थ्य और शक्ति के प्रति खिचाव रहना, मैं तो एक ढंग का पर्वर्शन मानता हूँ.
मेहरबानसिंह के इस वक्तव्य से मुझे लगा कि वह उनका एक आत्म-निवेदन मात्र है. मैं यह पहचान गया. इसे भांप गया. उनकी आंखों में एकाएक प्रकट हुई और फ़िर वैसे ही हुई रोशनी से मैं यह जान गया. लेकिन मेरे ख्याल कि उन्होंने परवाह नहीं कि. और, उनकी कहानी आगे बढ़ी.
- आखिरकार उसने जोकर बनने का बीड़ा उठाया. भूख ने उसे काफ़ी निर्लज्ज भी बना दिया था.
शाम को, जब खेल शुरू होने के लिए करीब दो घंटे बाकी थे, उसने सर्कस के द्वार से घुसना चाहा कि वह रोक दिया गया. वह अन्दर जाने के लिए गिड़गिड़ाया. दो मजबूत आदमियों ने उसकी बांह पकड़ ली. वो गोआनीज़ मालूम होते थे.
"कहाँ जा रहे हो ?"
रौब जमाने के लिए उसने अंग्रेजी में कहा, "मेनेजर साहिब से मिलना है. "
अंग्रेजी में जवाब मिला, "वहाँ नहीं जा सकते ! क्या काम है ?"
हिन्दी में - "नौकरी चाहिए. "'
अंग्रेजी में - "नौकरी नहीं है, गेट आउट. " और वह बाहर फेंक दिया गया. जनतंत्र नहीं है. यहाँ भी नहीं. भीख भी नहीं मांग सकता, यह असंभव है, इसीलिए नौकरी की तलाश है. और वह मन ही मन न मालूम क्या-क्या बड़बड़ाने लगा.
मेहरबानसिंह ने कहा कि यहाँ से कहानी एक नए और भयंकर तरीके से मुड़ जाती है. वह मेनेजर को देखने का प्रयत्न करे कि वापस हो, या न वापस हो ! बताईये, आप बताईये ! और, उन्होंने मेरी आंखों में आखों डालीं.
उनके प्रश्न का मैं क्या जवाब देता ! फ़िर भी मैंने अपने तर्क से कहा स्वाभाविक यही है कि मेनेजर से मिलने की एक बार और कोशिश करे. जोकर की कमाई भी मेहनत की कमाई होती है. कोई धर्मादाय पर जीने की बात तो है नहीं.
- एक्ज़क्टैली ! (ठीक बात है) उन्होंने कहा. उसने भी यही निर्णय लिया, लेकिन यह निर्णय उसके आगे आने वाले भीषण दुर्भाग्य का एकमात्र कारण था. वह निर्यणत्माक क्षण था, जब उसने यह तय किया कि मेनेजर से मिलने के लिए सर्कस के सामने वह भूख-हड़ताल करेगा. उसने यह तय किया, संकल्प किया, प्रण किया. और, यह प्रण आगे चलकर उसके नाश का कारण बना ! दिल की सच्चाई, और सही-सही निर्णय से दुर्भाग्य का कोई सम्बन्ध नहीं है. उसका चक्र स्वतंत्र है, उसके अपने नियम हैं.
मेहरबानसिंह अपनी कुर्सी से उठ पड़े. कोट की जेबों में माचिस की तलाश करने लगे. मैंने अपनी जेब से उन्हें दियासलाई दी, जिसमें कुछ ही तीलियाँ शेष थीं. उन्होंने सिगरेट ऑफर की. मैंने कहा, "नहीं-नहीं, मेरे पास बीडी है. "
"अरे लो !! कामरेड !! लाओ मुझे बीड़ी दो !! मैं बीड़ी पीयूँगा !!"
कामरेड शब्द के प्रयोग पर मुझे ताज्जुब है. ऐसा उन्होंने क्यों कहा ? मेरे लिए इस शब्द का आज तक किसी ने प्रयोग नहीं किया. मैं मेहरबानसिंह के अतीत के विषय में सशंक हो उठा. एक सेकंड क्लास गजेटेड अफसर की रैंक का आदमी, इस शब्द का प्रयोग करता है, जरुर यह पुराने जमाने में उच्चका रहा होगा !
मेहरबानसिंह ने भौहों के परे देखते हुए, मानो आसमान की तरफ़ देख रहे हों, बीड़ी का एक कश खींचा, और कहा, "इसके आगे मैं ज़्यादा नहीं कह सकूँगा, केवल इम्प्रेशन्स ही कहूँगा. "
- भूख हड़ताल के आस-पास लोगों के जमाव से घबराकर नौकरों ने शायद, मेनेजर के सामने जाकर यह बात कही. थोड़े ही समय के बाद, शामियाने के अन्दर बनाए गए एक कमरे में वह ले जाया गया. भीड़ बाहर रोक दी गई. थोडी देर बाद सर्कस शुरू हुआ.
काले पैंट पर सफ़ेद झक कोट पहने वह साढ़े छः फुट का एक मोटा-ताज़ा आदमी था, जो बिल्कुल गोरा, यहाँ तक कि लाल मालूम होता था. वह या तो एंग्लो-इंडियन होगा या गोआनीज़ ! आंखें कंजी, जिसमें हरी झाँक थी. वह एकदम चीता मालूम होता था. उतना ही खूबसूरत, वैसा ही भयंकर !
उसने साफ हिन्दी में कहा, " क्या चाहते हो ?"
उसे काटो तो खून नहीं. उसके राक्षसी भव्य सौंदर्य को देखकर, वह इतना हतप्रभ हो गया था.
मेनेजर ने फ़िर पूछा, "क्या चाहते हो ?"
दिमाग सुन्न हो गया था. मेनेजर के आसपास खूबसूरत औरतें आ-जा रही थीं. गुलाब-सी खिली हुई, या जिंदा लाल-मांस से चमकती हुई. लेकिन भयंकर आकर्षक.
उसने सोचा, यह एक नया तजुर्बा है.
उसने शब्दों में दयनीयता लाते हुए कहा, "मुझे नौकरी चाहिए, कोई भी. चाहो तो झाडू दे सकता हूँ, कपड़े साफ कर सकता हूँ. मुझे नौकर रख लो. चाहो तो मुझे जोकर बना दो, कई दिन से पेट में कुछ नहीं ! मैं आपके पाँव पड़ता हूँ. "
- तो साहिब यह गिड़गिड़ाहट जारी रही. शब्द, वाक्य बगैर कामा फुलस्टाप के बहते गए, बहते गए ! वहां के वातावरण ने चमत्कारपूर्ण भयंकर आकर्षण से उसे जकड़ लिया. उसने निश्चय कर लिए कि मैं जान दे दूंगा, लेकिन यहाँ से टलूंगा नहीं.
मेनेजर ने ऐसा आदमी नहीं देखा था. पता नही, उसने क्या सोचा. लेकिन उसके चेहरे पर आश्चर्य और घृणा के भाव रहे होंगे.
उसने कठोर स्वर में कहा, "मेरे पास कोई नौकरी नहीं है. लेकिन तुम्हे रख सकता हूँ, सिर्फ़ एक शर्त पर. "
वह उसका चेहरा देखता खड़ा रह गया. अचानक दया से, उसके मुंह से एक शब्द भी न निकला. उसने केवल इतना सुना, 'सिर्फ़ एक शर्त पर.'
उसने मौखिक व्यायाम सा करते हुए कहा, "मैं हर शर्त मानने के लिए तैयार हूँ. मैं झाडू दूंगा. पानी भरूंगा. जो कहेंगे, सो करूँगा." (जिंदगी का एक ढर्रा तो शुरू हो जायेगा. )
मेनेजर ने घृणा, तिरस्कार और रौब से उसके सामने एक रूपया फेंकते हुए कहा, "जाओ, खा आओ, कल सुबह आना !" और मुंह फिराकर दूसरी तरफ़ चलता बना. एक सीन ख़त्म हुआ.

मेहरबानसिंह किस्सा कहते कहते थक गए से मालुम हुए. उन्होंने एक सिगरेट मेरे पास फेंकी, एक ख़ुद सुलगाई, और कहने लगे, "किस्सा मुख्तसर में यूं है, कि दूसरे दिन तड़के जब वह व्यक्ति सर्कस में दाखिल हुआ, तो दो अजनबी आदमियों ने उसकी बाँहें पकड़ लीं और एक बंद कोठे में ले गए. उसे कहा गया कि उसकी ड्यूटी सिर्फ़ कमरे में बैठे रहना है. उस दिन उसे खाना पीना नहीं मिला. कोठे में जंगली दरिंदे की बास आ रही थी. उसके शरीर की उग्र दुर्गन्ध वहाँ वातावरण में फैली हुई थी. कमरा छोटा था. और बहुत ऊंचाई पर एक छोटा-सा सुराख था, जहाँ से हवा और प्रकाश आता था, लेकिन वह अंधेरे के सूनेपन को चीरने में असमर्थ था. वह व्यक्ति एक दिन और एक रात वहाँ पड़ा रहा. उसे सिर्फ़ दरिंदों का ख्याल आता. उनके भयानक चेहरे उसे दिखाई देते, मानो वे उसे खा जायेंगे.
एक बड़े ही लंबे ओर कष्टदायक अरसे के बाद, जब एक चमकदार यहूदी औरत ने कोठे का दरवाजा खोला ओर कहा, "गुड मार्निंग", तब उसे समझ में आया कि वह स्वयं जिंदगी का एक हिस्सा है, मौत का हिस्सा नहीं. औरत बेतकल्लुफी से उसके पास बैठ गई ओर उसे नाश्ता कराया, जिसमें कम-स-ऐ-कम तीन कप गर्मागर्म चाय, ताजा भुना गोश्त, अंडा, सैन्डविचेज़ ओर कुछ भारतीय मिठाई भी थी.
लेकिन, इतना सब कुछ उससे खाया नहीं गया. मरे हुए कि भांति उसने पूछा, "मुझे कब तक कोठे में रखा जायेगा, मेरी ड्यूटी क्या है ?"
यहूदी औरत सिर्फ़ मुस्कुराई. उसने कहा, "ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम्हारी तरक्की का रास्ता खुल रहा है. यह तो बीच के इम्तिहानात हैं, जिन्हें पास करना निहायत जरुरी है. "
किंतु उस व्यक्ति का मन नहीं भरा. उसने फ़िर पूछा, "क्या मैं मेनेजर से मिल सकता हूँ ?"
यहूदी औरत ने उसकी तरफ़ सहानुभूतीपुर्वक देखते हुए कहा, "अब मेनेजर से तुम्हारी मुलाक़ात हो ही नहीं सकती. अब तुम दूसरे के चार्ज में पहुँच गए हो. वह तुम्हें मेनेजर से मिलने नहीं देगा. "
यहूदी औरत जब वापस जाने लगी तब उसने कहा, "कल फ़िर आओगी क्या ?"
उसने पीछे की ओर देखा, मुस्करायी और बगैर जवाब दिए वापस चली गयी. कोठे का दरवाजा बाहर से बंद हो गया. और, एक बच्चे कि भांति वह उस चमकदार ओर छाया-बिम्ब से खेलता रहा.
किंतु, उसका यह सुख क्षणिक ही था. लगभग दो घंटे घुप अंधेरे में रहने के बाद दरवाजा चरमराया और वास्कट पहने हुए दो काले व्यक्ति हंटर लिए हुए वहाँ पहुंचे.
वे न मालूम कैसी-कैसी भयंकर कसरतें करवाने लगे, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता. वे कसरतें नहीं थीं, शारीरिक अत्याचार था. ज़रा गलती होने पर वे हंटर मारते. इस दौरन उस व्यक्ति की काफ़ी पिटाई हुई. उसके हाथ पैर, ठोडी में घाव लग गए. वह कराहने लगा. कराह सुनते ही, चाबुक का गुस्सा तेज़ हो जाता. मतलब यह कि वह अधमरा हो गया. उसको ऎसी हालत में छोड़कर, हंटर-धारी राक्षस चले गए.
करीब तीन घंटे बाद, चाय आई, डॉक्टर आए, इंजेक्शन लगे, किंतु किसी ने दरिंदे की दुर्गन्ध से भरे हुए उस कोठे में उसे नहीं निकाला.
समय ने हिलाना-डुलना छोड़ दिया था. वह जड़ीभूत सूने में परिवर्तित हो गया था.
बाद में, दो-एक दिन तक, किसी ने उसकी ख़बर नहीं ली. उसे प्रतीत होने लगा की वह किसी कब्र के भीतर के अन्तिम पत्थर के नीचे गड़ा हुआ सिर्फ़ एक अधमरा प्राण है.
एकाएक तीन-चार आदमियों ने प्रवेश किया और उसे उठाकर, मानो वह प्रेत हो, एक साफ-सुथरे कमरे में ले गए. वहाँ उसे दो-चार दिन रखा गया, अच्छा भोजन दिया गया.
कुछ दिनों बाद, ज्यों ही उसके स्वास्थ्य में सुधार हुआ, उसे वहाँ से हटाकर रीछों के एक पिंजरे में दाखिल कर दिया गया.

अब उसके दोस्त रीछ बनने लगे. वहीं उसका घर था, कम-से-कम वहाँ हवा और रोशनी तो थी.
लेकिन, उसकी यह प्रसन्नता अत्यन्त क्षणिक थी. उसके शरीर पर अत्याचार का नया दौर शुरू हुआ. उससे अजीबोगरीब ढंग की कवायदें कराई जातीं. रीछों के मुंह में हाथ डलवाये जाते, रीछ छाती पर चढवाया जाता और ज़रा गलती की कि हन्टर. कुछ रीछ बड़े शैतान थे. उसका मुंह चाटते, कान काट लेते. उनके बालों में कीड़े रहा करते ओर हमेशा यह डर रहता कि कहीं रीछ उसे मार न डालें. शुरू-शुरू में, व्यक्ति को भुना हुआ मांस मिलता. अब उसके सामने कच्चे मांस की थाली जाने लगी. अगर न खाए तो मौत, खाए तो मौत.
और हन्टरों का हिसाब न पूछो. शायद ही कोई ऐसा दिन गया होगा, जब उस पर हंटर न पड़े हों, बाद में भले ही मरहम लगाया गया हो.
वह यह पहचान गया कि उसे जान-बूझकर पशु बनाया जा रहा है. पशु बन जाने की उसे ट्रेनिंग दी जा रही है. उसके शरीर के अन्दर नई सहन-शक्ति पैदा की जा रही है.
अब उसे कोठे से निकाल बाहर किया गया ओर एक-दूसरे छोटे पिंजरे में बंद कर दिया गया. वहाँ कोई नहीं था, और एक निर्द्वन्द अकेला जानवर था. अकेलेपन में वह पिछली जिंदगी की तुलना करने लगता और उसे आत्महत्या करने की इच्छा हो जाती. इस नए क्षेत्र में, जीवन-यापन का एकमात्र स्टैंडर्ड यह था कि वह पशु-रूप बन जाए. उसने इसकी कोशिश भी की.
अति भीषण क्षण में, चार-पाँच आदमी पिंजरे में घुसे और उसे घेर लिया. उसकी भयभीत पुतलियाँ आंखों में मछली-सी तैर रही थीं. वह डर के मारे बर्फ हो रहा था. शायद, अब उसे बिजली के हंटर पड़ेंगे ! पाँचों आदमियों ने उसे पकड़ लिया ओर उसके शरीर पर जबरदस्ती रीछ का चमड़ा चढ़ा दिया गया और उससे कह दिया गया कि साले अगर तुम रीछ बन कर नहीं रहोगे तो फौरन से पेश्तर उड़ा दिए जाओगे.
यहाँ से उस व्यक्ति का मानव-अवतार समाप्त होकर ऋक्षावतार शुरू होता है. उससे वे सभी कवायदें करवाई जाती हैं, जो एक रीछ करता है. उस सबकी प्रक्टिस दी जाती है. और प्रैक्टिस भी कैसी - महाभीषण ! और अगर नाहीं की तो सभी आदमी एकदम उसपर हमला करते हैं. बिजली के हन्टरों की फटकार, गाली-गलौज ओर मारपीट तो मानो रूटीन हो गयी है. जलते हुए लोहे के पहिये के बीच उसे निकल जाने को कहा जाता है. उसे खौफनाक ऊंचाई से कुदाया जाता है आदि-आदि. फ़िर उसे कच्चा मांस, भुना मांस ओर शराब पिलायी जाती है और यह घोषित कर दिया जता है कल उसकी प्रैक्टिस अकेले-अकेले सिर्फ़ शेरों के साथ होगी.

शीघ्र ही इम्तिहान का चरम क्षण उपस्थित होता है.वह रात भर भयंकर दुःस्वप्न देखता रहा है. वैसे तो सर्कस की उसकी पूरी ज़िंदगी एक भीषण दुःस्वप्न है, किंतु कल रात का उसका सपना, दुःस्वप्न के भीतर एक भीषण दुःस्वप्न रहा है, जिसे वह कभी भूल नहीं सकता. सुबह उठता है तो विश्वास नहीं कर पता है कि वह इंसान है. चले गए वे दिन, जब वह किसी का मित्र था तो किसी का पुत्र था. पेट भूखा ही क्यों न सही, आंखें तो सुंदर दृश्य देख सकती थीं और वह सुनहली धूप ! आहा ! कैसी खूबसूरत ! उतनी ही मनोहर जितनी सुशीला की त्वचा !
लेकिन वह अपने पर ही विस्मत हो उठा. यह सब वह सह सका, जिंदा रह सका, कच्चा मांस खा सका. मार खा सका और जीवित रह सका ! क्या वह आदमी है ? शायद, पशु बनने की प्रक्रिया पहले से ही शुरू हो गयी थी.
नाश्ते का समय आया. किंतु, नाश्ता गोल ! राम-राम कहते-कहते भोजन का समय आया तो वह भी गैर-हाजिर ! पेट का भूखा ! क्या करे ! शायद, भोजन आता ही होगा. लेकिन, उसे बिल्कुल भूख नहीं है, जबान सूखी हुई है. अगर वह चिल्लाया तो पहले की भांति, मुंह में कपडा ठूंस दिया जाएगा और उससे और तकलीफ होगी. खैरियत इसी में है कि चुप रहे, और आराम से साँस ले.
एकाएक सामने का एक बड़ा भारी पिंजरा खुला. अब तक उसमें कुछ था नहीं, लेकिन अब उसमें एक बड़ा-डरावना शेर हलचल करता हुआ दिखाई दे रहा था. एकाएक उसका भी पिंजरा खुला और दोनों पिंजरों के दरवाजों एक-दूसरे के सामने हो लिए. और, आदमियों की जो छायायें इधर-उधर दिखाई दे रही थीं, वे गायब हो गयीं.
एकाएक शेर चिन्घाड़ा ! ऋक्षावतार का रोम-रोम काँप उठा, कण-कण में भय की मर्मान्तक बिजली समा गयी. रीछ को मालूम हुआ कि शेर ने ऐसी जोरदार छलांग मारी कि एकदम उसकी गर्दन उस दुष्ट पशु के जबडे में जकड़ी गयी. ह्रदय से अनायास उठने वाली 'मरा-मरा' की ध्वनि के बाद अँधेरा-सा फैलने लगा. शेर की साँस उसके आस-पास फैल गयी, शेर के चमड़े की दुर्गन्ध उसके कानों में घुसी थी कि इतने में उसके कान में कुछ कम्पन हुआ, कुछ स्वर-लहरें घुसी जो कहने लगीं :"अबे डरता क्या है, मैं भी तेरे ही सरीखा हूँ, मुझे भी पशु बनाया गया है, सिर्फ़ मैं शेर की खाल पहने हूँ, तू रीछ की !"
इस बात पर रीछ को विश्वास करने या न करने की फुरसत ही न देते हुए शेर ने कहा, "तुम पर चढ़ बैठने कि सिर्फ़ मुझे कवायद करनी है, मैं तुझे खा डालने की कोशिश करूँगा, खाऊंगा नहीं. कवायद नहीं की तो हंटर पड़ेंगे तुमको और मुझको भी ! आओ, हम दोस्त बन जाएँ, अगर पशु की ज़िंदगी बितानी है तो ठाठ से बितायें, आपस में समझौता करके. "

मैं ठहाका मारकर हंस पड़ा. बात मुझ पर कसी गयी थी. बड़ी देर तक बात का मज़ा लेता रहा. फिर मेरे मुंह से निकल पड़ा, " तो गोया आप शेर हैं, और मैं रीछ. "...मुझ पर कहानी का जो असर हुआ उसकी ओर तनिक भी ध्यान ने देते हुए दार्शनिक भाव से मेरे अफसर ने कहा, " भाई, समझौता करके चलना पड़ता है जिंदगी में, कभी-कभी जानबूझ कर अपने सर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है. लेकिन उससे फायदा भी होता है. सिर सलामत तो टोपी हज़ार. "अफसर के चेहरे पर गहरा कड़वा काला ख्याल जम गया था. लगता मानो वह स्वयं कोई रटी-रटाई बात बोल रहा हो. मुझे लगा कि ज़िंदगी से समझौता करने में उसे अपने लंबे-लंबे पैर और हाथ काटने-छांटने पड़े हैं. शायद मुझे देखकर उसे उस बैल की याद आई थी, जिसके सिर पर जुआ रखा तो गया है, लेकिन जो उससे भाग-भाग उठा है. शायद उसे इस बात की खुशी भी हुई थी कि मुझमें वह जवान नासमझी है, जो ग़लत और फालतू बातें एक मिनट गवारा नहीं कर सकती.
मैं उसकी सांवली हड्डीदार सूरत को देखता रहा. हाँ, उस पर जिंदगी से समझौते के विरुद्ध एक क्षोभ की काली भावना छायी हुई थी.
मैंने पूछा, " तो मैं इस कागज़ पर दस्तखत कर दूँ. "
उसने दबाव के साथ कहा, "बिला शक, वार्निंग देनेवाला मैं, लेने वाले तुम., मैं शेर तुम रीछ. "
यह कहकर हंस पड़ा, मानो उसने अनोखी बात कही हो. मैंने मजाकिया ढंग से पूछा, "मैं देखना चाहता हूँ की शेर के कहीं दांत तो नहीं हैं. "
"तुम भी अजीब आदमी हो, यह तो सर्कस है, सर्विस नहीं. "
"देखो, आज पाँच साल की नौकरी हो गयी. एक बार भी न एक्सप्लेनेशन दिया न मुझे वार्निंग आई. मज़ा यह है कि यह एक्टिंग उस बात के ख़िलाफ़ है जो मैंऐ कभी की ही नहीं. यह कलंक है, उस अपराध का जो मैंने कभी किया ही नहीं. "उसने कहा, " तब तुमने भाड़ झोंका. अगर एक्सप्लेनेशन देने की कला तुमको नहीं आई तो फ़िर सर्विस क्या की ! मैंने तीन सौ साठ एक्सप्लेनेशन दिए हैं. वार्निंग अलबत्ता मुझे नहीं मिली, इसलिए कि मुझे एक्सप्लेनेशन लिखना आता है, और इसलिए की मैं शेर हूँ, रीछ नहीं. तुमसे पहले पशु बना हूँ. सीनियारिटी का मुझे फायदा भी तो है. कभी आगे तुम भी शेर बन जाओगे. "
बात में गंभीरता थी, मजाक भी. मजाक का मज़ा लिया, गंभीरता दिल में छपा ली.
इतने में मैंने उससे पूछा, "यह कहानी आपने कहाँ सुनी?"
वह हंस पड़ा. बोला, "यह एक लोककथा है. इसके कई रूप प्रचलित हैं. कुछ लोग कहते हैं कि वह रीछ बी.ऐ. नहीं था, हिन्दी में एम. ऐ. था. "
भयानक व्यंग्य था उसके शब्दों में. मैंने उससे सहज जिज्ञासा के भोले भाव से पूछा, "तो क्या उसने सचमुच फिर से मेनेजर को नहीं देखा."
वह मुस्कराया. मुस्कराता रह गया. उसके मुंह से सिर्फ़ इतना ही निकला, " यह तो सोचो कि वह कौन मेनेजर है जो हमे-तुम्हे, सबको रीछ-शेर-भालू-चीता-हाथी बनाए हुए है !"
मेरा सिर नीचे लटक गया. किसी सोच के समंदर में तैरने लगा.
तब तक चाय बिल्कुल ठंडी हो चुकी थी और दिल भी.

Monday, November 26, 2007

हम लोग

धूल, धुआं, गुबार, धुंध
इसी में जी जाते हैं कुछ लोग
रोशनी, अँधेरे को चीरने की कोशिश में
दम तोड़ती चलती है,
झरोखों से आती किरणें
उजाले में अँधेरे की हैं
या
अँधेरे में उजालों की
इसी गुथमगुत्थी में उलझी है
कुछ लोगों की जिंदगी।

हम कितने खुश हैं यहाँ
लाखों में तनखा पा कर
वो कितने खुश हैं वहाँ
सैकड़ों में मजदूरी पा कर,
मजदूरों को पता है
यही उनकी किस्मत, भूत, भविष्य है,
हमें पता है हमारा भविष्य
उज्ज्वलतर हो सकता है.

लेकिन,
कुछ ऐसे भी हैं
जो बीच में हैं, बीचों के बीच में
और ऊपर उठना चाहते हैं-
उठने की चाहत में गिर रहे हैं
हर दिन, हर रोज़, हर रात
मर रहे हैं रोज़,
हर घड़ी, हर समय।
और पाने की चाहत
चाहत, इच्छा, तृष्णा और कामना
जो पैदा की है-
करोड़ों में ऐश करने वालो ने
क्यूंकि उन्हें अरबों में ऐश करनी है,
सैकड़ों, लाखों, करोडों और अरबों के
खेल में
हज़ारों वाले पिस रहे हैं,
हज़ारों वाले,
जिनकी चाहत, भूख, प्यास
ख़त्म ही नहीं होती,
खतम होती है
तो करोड़ों वाले फिर पैदा कर देते हैं
और पैसा पाने की चाहत,
उनके ऊपर उठने की चाहत,
अर्थव्यवस्था पाल रही है,
अर्थव्यवस्था सीच रही है।

हम लाखों वालों के पास
साधन हैं खरीदने के आज के हिसाब से,
कल भी होंगे साधन खरीदने के
कल के हिसाब से,
उधर सैकड़ों वालों का संतोष बहुत बड़ा है,
उनकी पोटली में पेट भरने के मुश्किल से पैसे हैं,
लेकिन हम दोनों के बीच
वही हज़ारों वाले हैं-
जिनके पास रोटी के लिए भी पैसे हैं,
दारु के लिए भी,
पानी के लिए भी,
मुर्गे के लिए भी,
आंखों में लालच लिए वे गिर रहे हैं-
अपनी ही आंखों में
एक एक पैसा बचाने के लिए,
एक एक पैसा दबाने के लिए,
एक एक पैसा हड़पने के लिए।

बहुत सारे गलत हैं,
जिन्हें हमने सही मान लिया है
बहुत सारे सही है,
जिन्हें हमने गलत मान लिया है
और हम वो माँ बाप हैं,
हम वो माँ बाप होंगे-
जो यही गलत-सही, सही-गलत
आने वाली नस्लों को सिखायेगें,
जब पैसा दुनिया चलाएगा
अभी भी चला रहा है लेकिन
कहीं जाकर, किसी सीमा पर
जब अति हो जाती है,
कुछ लोगो का इमान
धिक्कारने लगता है
यह लगता है-
और अति, पैसे को ही ले दुबेगी
तो अति रोक दी जाती है
अच्छाई आगे बढ़ा दी जाती है
गलत, बुरा, अन्याय तोड़ता है दम।

लेकिन हम,
हम !
तो ऐसे हो गए हैं,
तंत्र को सुधारने की बजाय,
तंत्र को सुलझाने की बजाय,
देखना भी नापसंद करते हैं,
हम भूल जाते हैं अक्सर
वही पुलिस हमारे आसपास है
हम भूल जाते हैं
वही वकील साथ में है
जिसने बलात्कारी को जाने दिया था
भागने दिया था,
हम मुजरिम को तो मुआफ करना नहीं चाहते,
लेकिन, उन वकीलों, पुलिसवालों, और जजों के साथ
खाते, पीते, उठते, बैठते शर्म महसूस नहीं करते।

हम सब गिर गए हैं,
एक कुएं में
जहाँ से, अन्धकार से, रसातल से
ज्यादा से ज्यादा
चिल्ला लेते हैं, बोल लेते हैं
बहस कर लेते हैं,
लेकिन बाहर नहीं निकलना चाहते
जमीन पर क्या हो रहा है
नहीं देखना चाहते।

Saturday, November 24, 2007

बिटिया

दूर बहुत दूर भागते रहे हैं
लोगों से, बहुत सारे लोगों से
इंसानों से, उलझन से, आशाओं से
अकेले रहने की जिद की जिद कर ली है
साहस जवाब दे देता है.
दुखों से बचने के लिए,
तमाम सुखों को लात मार दी है
बस एक सूनी सी, एक सी, अकेली सी
जिंदगी कर ली है
जो हमें चला रही है
खुश भी रह लेते हैं, सबके बिना, ख़ुद के साथ
कभी कभी ख़ुद के बिना भी
आंखों से दीखने वाले, कानों से सुनने वाले
अनुभवों के साथ
जी लेते हैं.
उम्मीदें बस ख़ुद से लगा रखी हैं,
दूसरों से बस जवाब सुनते हैं, अक्सर ना में
यकीन हो चला है-
दूसरों में यकीन रखना फिजूल है,
निरर्थक है, दुखदायी है।

फ़िर
एक बच्ची कहीं भी चलते, फिरते, घूमते, टहलते
दिख जाती है,
मन में एक पुलक, एक उम्मीद, एक यकीन
जनम लेता है
लोगों के लिए, दूसरों के लिए
लगता है, कुछ तो माने हैं
रिश्तों के, समाज के
आश्चर्य होता है, एक बच्ची इतने प्रेम
इतने स्नेह, इतने वास्त्सल्य, इतने विश्वास
को जगा सकती है !
सब दुखों को एक क्षण में,
सब असफलताओं को एक पल में,
सब धोखों को उसी समय,
तुरंत झेलने को मान जाता है मन
उस प्यारी सी बच्ची के लिए,
जिसकी उंगलियों को उंगलियों में उलझाकर
तमाम मुश्किलात से, सारी अनहोनियों से
निकालते चलने के लिए
तुरंत मचल जाता है मन.
जिसको गोद में उठाकर
दीवार के ऊपर बिछी लताओं से फूल तोड़ने,
हाथों में बाँध कर झूले झुलाने,
और झूलते झूलते उसकी आंखों में चमकती
खुशी को अपनी आंखों में देखने,
सुबह सुबह उसकी प्यारी पुकार पर जगने,
के लिए-
अस्तित्व तड़प उठ पड़ता है,
एक बिटिया को.
मेरा अहम्
मिट्टी मिट्टी होकर पानी होता है,
सारे झूठ, सारे डर, सारे घमंड
पीछे छोड़ने को,
अंजुमन में एक बिटिया खिलाने को.

Monday, November 19, 2007

क्षणभंगुर

क्या लिखना अच्छा रहता है? जो कुछ भी मन में चल रहा हो उसे शब्दों का जामा पहनना सही है, किसी भी तरीके से लाभदायक है। क्या लाभ गिनने, समझने की भी जरुरत है। अभी कुछ ही देर पहले जो कुछ भी लिखा था उस एहसास का रत्ती भर भी बाक़ी नहीं रहा है ज़हन में। कुछ बात कर ली किसी से, सब जैसे ख़त्म हो गया। एक पल था जो बीत गया और अपने पीछे एक भी निशान नहीं छोड़ गया। थोडी अतिशयोक्ति हो रही है, लेकिन फिर बात का प्रभाव नहीं रह जाएगा।
हाँ लिखना जरुरी है। लिखने से सोच रेकॉर्ड हो जाती है। आप पीछे जाके देख सकते हैं कि थोड़ी ही देर पहले किस मूड में थे। क्या क्या महसूस किये जा रहे थे। बहुत कुछ हैं जो अपने बारे में हम लिखने से जान सकते हैं, हमारी कमजोरियां, ताक़त, विश्वास, समझ और अपने बारे में बहुत सारा ऐसा कुछ जिसे कुछ नाम नहीं दिया जा सकता। लिखना एक साथी बन जाता है। सामने उभरते अक्षर आपके सबसे घोर मित्र बन जाते हैं, जो आपकी हर बात सुनते समझते चलते हैं। वो उन सब मित्रों को भी स्वीकार कर लेते हैं, जिनसे आप तभी कि तभी मिलना चाहते हैं। जिनसे मिलने के लिए आप इन शब्दों में खुद को ढूँढ़ रहे हैं। ऐसा ही है मन। ऐसे ही हैं मन के खेल।
लगातार लिखते चलना कितना रोमांचक होगा। हर ख्याल, हर तस्वीर जो दिमाग में उभरती है, उसे पन्नों पर उतारते चलना। हमारी चाहत, हमारी हवस, हमारी कल्पना, हमारी समझ, हमारी उलझन, हमारे सुख हमारे दुःख। वो छोटी छोटी बातें जिनको सोच कर हम एक पल के लिए सुखी हो लेते हैं, एक पल के लिए दुखी हो जाते हैं। सब कुछ।। और कितना कुछ है, रेकॉर्ड करने को। अगर हम कर पायें तो।

Sunday, November 18, 2007

अस्तित्व

ये हमारे 'काश!' ही ले डूबेंगे हमें एक दिन,
दर्द को ही दवा बना लेते हैं हम,
मर्ज़ में ही राहत ढूँढ़ लेते हैं हम।

यह पागलपन इस कदर तो न बढ़ने दो,
ये वहाशियत इस कदर तो न बुझने दो,
वहशियत ने ही तो जिंदा रखा है हमें,
रुमानियत तो भून भून खाती हमें!

रुमानियत जिलाएगी तुम्हे,
भरम हैं तुम्हारे-
वहशियत मारती है तुम्हे,
करम हैं तुम्हारे।

मरने और जीने का फर्क जो समझ पाते,
तो यह बेहूदा सपने नहीं आते-
जिन में जिंदगी से ज्यादा जिए हैं,
जिन में मरने की आस किये हैं।

जिंदा रहना इतना ही आसान होता,
तो जिंदा होने के माने न बदले होते-
मरना इतना ही मुश्किल होता,
तो रोज़ न हम मरते होते।

जिए जाओ दोस्त,
हमसफ़र मिल जाये कोई,
इसी आस में जिए जाओ,
जब जहाँ मुलाक़ात होगी,
उस पल के छल के लिए-
जिए जाओ!

मुस्तक़बिल हमारे हमने ही लिखे हैं,
शब-ओ-सहर हमारे हमने ही बुने हैं,
वो ऊपर बैठा अगर लिख ही पाता-
तो इतना बुरा न लिखा होता।

Thursday, November 15, 2007

दरअसल बात निर्मल वर्मा की है..

जब भी लगने लगता है कि अनुभूति की समझ, संवेदनाओं की पकड़ थोड़ी कमजोर पड़ रही है, निर्मल वर्मा को पढ़ना चालू कर देता हूँ। अविश्वसनीय तरीके से अनुभूति को शब्दों में बांधते चलते हैं। हर उपन्यास, हर कहानी किसी और ही संवेदना के स्तर पर ले जाके छोड़ देती है। दुःख और सुख में बस दु और सु का ही अंतर रह जाता है। पढ़ते पढ़ते पता ही नहीं चलता कि चरित्रों का दुःख किस भावना को उत्पन्न कर रहा है। बस इतना समझ में आता है कि संवेदना जो साथ साथ चरम पर पहुंच रही है, कब से आप ऐसे ही कुछ की तलाश में थे। निर्जीव वस्तुएं किस तरह से हमारे आस पास एक जीवंत संसार बुन देती हैं, यह निर्मल वर्मा को पढ़ कर पता चल जाता है। बहुत कुछ जो आप महसूस करना भूल गए थे, चलते फिरते, दोस्तों से बात करते, सफर करते, और किसी भी सामान्य से क्षण में, वापस आपके सामने आना लगता है।

जब दर्द नहीं था सीने में....पुरानी बात हो गयी है फिर भी..

सिलसिले थे मेरी नादान लगन के,
जो चिथड़े चिथड़े
अब झुलस कर राख हैं।
खाकों में मुक़द्दर ढूंढते रहे
और एक मुस्कराहट में
तकदीरों की जागीरें कैद हैं।
बेपनाह ख़ुशी से
लबालब हैं दो आंखें
कि तमाम दर्द सिमट कर मोती हैं।
ना इंतज़ार, ना उम्मीद,
ना कविता, ना अश-आर,
एक ख़ला है जिसमें
बिखरे तमाम मोतियों के उजाले हैं।

रौशन हैं इनसे अँधेरे
आने वाली मंजिलों के,
कुदरत रौशन रखे राहें भी
जिसके नए सफर के आगाज़ हैं।

Wednesday, November 14, 2007

मौसम

सर्दियों की शामों में ही अकेलापन होता है। फिलहाल तो मैं अकेला ही हूँ लेकिन लगता है कि महफ़िल में मनचीन्हे दोस्तों के साथ भी होता, अन्दर अकेलापन ही भरा रहता। ये अजीब सा सफ़ेद, नीला, काला, धुंध से भरा और धुंध से खुल चुका सा आसमान। कहीं तनहा कहीं कतार में खडे दरख्त। कुछ और भी ज्यादा चमकती रोशनियाँ। साफ पानी से धुली धुली सी प्रतीत होती सड़कें। पल पल और ठंडी होती जाती हवा। सब कुछ साथ मिलकर एक ऐसा वातावरण, एक ऐसा समां बाँध देता है कि भीड़ भड़क्के, चमक दमक और शोर शराबे से कुढ़न और कोफ्त सी होने लगती है। जी चाहता है कि विशुद्ध मौसम का डूब कर आनंद लिया जाये। फिर, किसी के साथ की कामना उत्पन्न हो जाती है। जो धीरे धीरे इतनी तीव्र और तीक्ष्ण, कसक से भरपूर हो जाती है कि वापस चमक दमक में जाने की चाह हो आती है। आपका मन मस्तिष्क आपसे ही गद्दारी करने लगता है। मन मक्कार।
सब साथी इस तरह से तितर बितर हो रखे हैं कि अकेलापन एक साथ गर्व और बोझ की अनुभूति देता चलता है।

Saturday, November 10, 2007

जान निसार अख्तर..

अश-आर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं

अब यह भी ठीक नहीं कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं

आंखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेगें
यह ख्वाब तो पलकों पर सजाने के लिए हैं

देखूं तेरे हाथ तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं

यह इल्म का सौदा यह रिसाले यह किताबें
इक शख्स कि यादों को भुलाने के लिए हैं!

Thursday, November 1, 2007

गुलज़ार की नज़्म और नसरुद्दीन शाह की आवाज....

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाजी देखी मैंने
खाली घर में सूरज रख कर तुमने शायद सोचा था
मेरे सब मोहरे पिट जायेगे
मैंने एक चिराग जला कर अपना रास्ता खोल लिया

तुमने एक समुन्दर हाथ में लेकर मुझ पर ठेल दिया
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ कर लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया

मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह दे कर तुमने सोचा था अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रूह बचा ली

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी....

Wednesday, October 31, 2007

जवाहरात

हीरे, मोती और पन्ने भी हमारे आस पास तो नहीं, हाँ थोडा चलकर ही मिल सकते हैं। लेकिन हम लोहे लंगड़ से ही इतने खुश रहते हैं, कि उन अनमोल पत्थरों के बारे में सोच ही नहीं पाते।
रात में ९:३० कि टैक्सी से घर जाना था। लेकिन टैक्सी में बैठा ही था, कि कोई महानुभाव आ गए जगह मांगने, ३ लोग पहले ही पिछली सीट पर बैठे थे, चौथे के लिए जगह नहीं थी। भाई साहिब अड़ ही गए, जगह दें, जगह दें। हमने कहने कि कोशिश कि आपके लिए शायद जगह नहीं है, माने ही ना। तो मैं फटाक से भागा बस की ओर जो बस निकलने ही वाली थी। और बस में घुसते ही देखा कि विशाल बैठा था। मन बाग़ बाग़ हो गया। चेहरा देखते ही। चेहरों ने बयान कर दी थी, एक दूसरे की ख़ुशी। होते हैं कुछ लोग, जिनके साथ बात करके लगता है, कि अभी तक किन बेवकूफों, नादानों और जाहिलों के बीच बैठे थे। मुझे नहीं पता कि वो लोग जाहिल होंगे लेकिन लगता ऐसा ही है।
बात करके लगता है कि ऐसा ही कुछ होना चाहिए दोस्त। शामें ऐसी ही कटनी चाहिऐ, खासकर जब आप ऑफिस से थक कर लौटे हों। मैं अभी तक उन चौथे महानुभाव को शुक्रिया अदा कर रहा हूँ, जो एन वक़्त पर जगह मांगने आ गए थे। एक बहुत अच्छी शाम दे गए वो मुझे।
ये जवाहरात क्यों हम नज़रंदाज़ करते रहते हैं, क्यों हम कबाड़ के बीच कि ज़िंदगी को ही सबसे अच्छी ज़िंदगी मान कर बैठ जाते हैं। क्यों हम हीरों को खोजना बंद कर देते हैं, खोजना तो छोड़िये हम तो देखना भी नहीं चाहते।

Tuesday, October 30, 2007

वादा तोड़ा है मैंने, रोज़ एक का वादा था..

यह सपने मत दिखाओ मुझे,
टूटते हैं सपने, टूटता हूँ मैं,
जुड़ते हैं सपने, बंटता हूँ मैं,
सच सपने की चाकी यह, पिसता हूँ मैं
काश! यह सपने आपको भी आते..

मुकद्दर लिखो इन सपनों का अब तुम,
मुकम्मल करो इन सपनों को अब तुम,
सपनों सा जीवन होगा, जीवन एक सपना
अपूर्व सुन्दर होगा, निर्मल प्रेम अपना
काश! यह सपने आपको पा जाते...

दास्तान तुम मेरी बनो हम तेरे अफ़साने
किस्से चर्चे चले हमारे सपनों से दीवाने
ये दीवाने सपने, हमें पागल क्यों नहीं बनाते
काश! यह सपने आपको मिल जाते ...

Sunday, October 28, 2007

रोज़ एक..

क्या ख़ता हुई है, यह भी नहीं बताते हैं,
बिना बात किये बतियाते हैं सरकार !

कदमों तक को साथ चलाने में रंज हो उन्हें,
बगल में हो कर भी, अलग चलते हैं सरकार !

तुम्हें कोसने के लिए खुद को कोसते हैं हम,
और वहाँ बेरुखी से खुश होते हैं सरकार !

अपने अरमानों को इतना ज़ब्त किया है हमने,
क्यों अश्कों को ज़हर बनाते हैं सरकार !

टूटे हुए दिल से रूखे लबों पर हंसी लाते हैं,
क्यों हंसते को रुलाते, फिर हंसाते हैं सरकार !

हमें भी रंज हो जिस बात, पर तड़पे फिर रात भर
खता करवा के गिला क्यों करवाते हैं सरकार !

आशियाने में मेरे तनहा सी उदासी है,
क्यों नहीं इसे अपनी सादगी से सजाते हैं सरकार!!

शायद एक नज़्म

खो कर खुदी, ढूंढ रहा हूँ तुमको मैं
पढ़ कर बदी, लिख रहा हूँ माज़ी मैं

आसान नहीं, इस दरिया में साहिल पाना
तूफानों में दरियादिल मौजों ने हमें संभाला

पलकों की कलम, अश्कों की स्याही और आंखों के सफे
बह गए हैं कितने ही अफ़साने, अनसुने और अनकहे

कोहरे का सूरज बनो, इन सर्दीली सुबहों में
थरथरायेँ बेजार होंठ, तुम्हे पुकारने के लिए

दर्द तो तनहा झेल जाती है, मेरी खूंखार खुद्दारी
ख़ुशी से नाचता मन महरूम रहे, तालों से तुम्हारी।

Saturday, October 27, 2007

बडे दिनों बाद...

लिखूं कुछ! खूबसूरत चेहरों के बारे में या फिर खूबसूरत दिलों के बारे में। क्या दोनों एक दूसरे के पूरक नहीं होते हैं? अभी तक तो यही ही पाया है, हाँ अगर आप खूबसूरती को उसी तरह समझते हों, जिस तरह मैं या कई और सारे लोग, कवि और लेखक समझते आये हैं। दिल खूबसूरत हो तो चेहरे पर भी वही नक्श उभार देता है। चेहरा खूबसूरत हो तो दिल भी थोडा खूबसूरत हो ही जाता है। यह भी हो सकता है कि मेरी खूबसूरती की परिभाषा कुछ अलग हो और इसी सिद्धांत के अनुसार हो।
जितनी खूबसूरती सादगी में पायी है, उतनी कहीं और नहीं पायी। किसी भी चीज़ में, घरों में, फूलों में, बागों में, नज़ारों में, आदमियों में , औरतों में, हर कहीं। जो जितना सादा और प्राकृतिक है, उतना ही खूबसूरत है। प्रकृति ने जो कुछ भी बनाया है, इतना खूबसूरत बनाया है कि कुछ लोगों को, कम से कम हम जैसे लोगों को उससे ज़्यादा खूबसूरत कुछ लग ही नहीं सकता।
ऐसा है फिर। बडे दिनों के बाद कैसी बकवास निकल कर सामने आई है। कुछ आजाद महसूस कर रहा हूँ एक अच्छी शाम बिताने के बाद। और कुछ ध्यान में भी नहीं आ रहा लिखने लायक। ऐसा तो होगा नहीं कि कुछ लिखने को हो ही ना, फिर दिमाग काम क्यों नहीं कर पा रहा? शायद हमारा काम ही ऐसा है कि दिमाग के लिए यह सब बकवास सोचने के लिए जगह ही नहीं बचती। हाँ, आप जबरदस्ती करिये तो निहायत घटिया और वाहियात किस्म की बकवास निकल कर बाहर आती है।
कुछ दिनों से पुराने गुजरे दिनों को याद कर कर के शामें गुजार रहा हूँ। अच्छा लगता है, लेकिन फिर बुरा भी लगता है कि वो दिन वापस क्यों नहीं आ सकते। आ तो नहीं ही सकते। जो हो नहीं सकता, मन वैसा ही क्यों चाहता है। जो हो सकता है, सामने होता दीख रहा हो, वो क्यों नहीं चाह पाता मन। कई सारे क्यों हैं, जिनका कोई जवाब नहीं होता, यह भी उनमें से एक 'क्यों' होगा।
तस्वीरों के सहारे उन लम्हों को वापस जीने की कोशिश सी होती रहती है। कुछ हल नहीं निकलता। बस होता यही है, कि अंत में यह सोचना पङता है कि अगर एक ही जगह सब साथ में होते तो कितने अच्छे दिन कटते।
जैसे आप अपने ना मिल सकने वाले प्यार को उम्र भर तलाश करते हैं, हर चीज़ में, हर जगह में ,हर लम्हे में, आप उस प्यार का अंश ढूँढते रहते हैं। कहीं भी उसको ना पा कर ऐसा लगने लगता है की दुनिया में प्यार बचा ही नहीं आपके लिए। जबकि प्यार आपके आस ही पास टहलकदमी कर रहा होता है।
और इस तरह से बात घूम फिर कर प्यार पर आ गयी है। इतनी जरुरी चीज़ है प्यार एक ज़िंदगी में। हाँ। नहीं। किसके पास मिलेगा जवाब इस सवाल के पास। खुद के पास। लेकिन खुद तो अभी प्यार ही ढूंढ रहा है। ढूँढते ढूँढते ही मिलेगा जवाब भी।

Sunday, April 29, 2007

माने

अगर कोई नीचे लिखी कविता को पढे तो यह भी सोच सकता है कि क्या अव्वल दर्जे की बकवास लिख रखी है। लेकिन अगर आप ने किसी को चाहा है तो आपको पता हो या ना हो आप इन हालातों से जरूर गुजरे होंगे। कवि ने इतना सूक्ष्म विवेचन कर रखा है छोटी छोटी बातों का, शायद महसूस करने वाले के भी पकड़ में ना आने पाए। लेकिन कविता इसी को कहते हैं शायद।
और जब आपको यह पता चलता है, कि आपने जैसा पहले कभी, किसी के लिए महसूस किया था, वो ऐसे ही फालतू का रुमानीपन नहीं था, बल्कि उसके भी माने थे। अगर किसी और ने भी, वैसा ही कुछ, किसी और के लिए, कभी और महसूस किया है, तो यह बकवास तो नहीं हो सकती है। हाँ, अगर हम इंसानी जज्बातों को कि बकवास मान लें तो बात अलग है।

प्रतीक्षा करो

प्रतीक्षा करो
कि वह अभी घर में नहीं है;
प्रतीक्षा करो
कि वह अभी अपने काम में लगी है;
प्रतीक्षा करो कि वह सो रही है;
प्रतीक्षा करो कि वह नहा रही है;

प्रतीक्षा करो कि वह सपने में है;
प्रतीक्षा करो कि वह सच बुन रही है;
प्रतीक्षा करो कि वह दूर से आ रही है;
प्रतीक्षा करो कि वह थककर कहीँ जा रही है;

प्रतीक्षा करो कि वह जाना नहीं चाहती;
प्रतीक्षा करो कि वह जा रही है;
प्रतीक्षा करो कि वह आना नहीं चाहती;
प्रतीक्षा करो कि वह आ रही है;

प्रतीक्षा करो कि वह कहे
तुम कब से प्रतीक्षा कर रहे हो?
प्रतीक्षा करो कि वह कहे
अच्छा हुआ कि तुम प्रतीक्षा कर रहे हो!

प्रतीक्षा करो
क्योंकि वह प्रतीक्षा कर रही है।

- अशोक बाजपेयी

Friday, April 27, 2007

एक तृप्त आदमी

मेरा मित्र तो उन पर मुग्ध है। कहता है -- 'ऐसा आदमी दुर्लभ है। दुनिया में निराशा, विकलता, पिपासा और कुंठा के पुतले ही देखने में आते हैं। तृप्त आदमी आउट-ऑफ़-स्टॉक होता जाता है। "एन एल मास्टर" झरना है, रेगिस्तान का। उसे देख लेने से ऐसा लगता है कि जैसे तीर्थ स्नान कर लिया हो। वह पूर्ण तृप्त आदमी है। उसे कोई भूख नहीं है।' और मुझे याद आता है कि पिछले साल जब मैं बीमार पड़ा था, तब मेरी भी भूख मर गयी थी। अच्छे से अच्छे पकवान मेरे सामने रहते थे और मैं मुँह फेर लेता था।

इससे पहले वाले ब्लॉग में जो कुछ मैंने लिखा है, ऊपर लिखा उसी का विस्तार है, जो मैंने अगले ही दिन हरि शंकर परसाई के एक व्यंग्य में पढ़ा था। और ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है, जब भी मैंने कुछ अच्छा पढ़ा, लिखा या देखा है, कुछ और भी उसी से मिल जुला देखने, सुनने को मिला है। और स्पष्ट करता हुआ, सूत्रों को जोड़ कर एक कहानी सा बनता हुआ।

Friday, April 20, 2007

प्यार और पैसे की प्यास

यदि अक्षरों के संयोजन कि ओर ध्यान देवें तो पायेंगें कि प्यास, प्यार और पैसे की होना कुछ अनोखा नहीं लगता। बहुत बार यह विचार मन में आता है कि जो वस्तुएं प्रकृति ने बनायी हैं, उनमें ऐसा तारतम्य है, जैसा कहीँ और भी नहीं मिल सकता। कहानियो के सूत्र और रेशे इस तरह जुडते चलते हैं कि एक उपन्यास बन जता है। अगर आपने 'सूरज का सातवां घोड़ा' पढ़ा हो, तो आपके लिए प्रकृति के रचनाकर्म को समझना काफी आसान हो जाएगा।
यह विचारों कि नदी ही है जो बह कर बात को कहीँ से कहीँ ले जाती है। बात हो रही थी प्यार और पैसे की प्यास की। प्यास ना हो तो यह दुनिया ही ना हो, जिसे तृष्णा कह कर गौतम बुद्ध नामक महात्मा ने सारे दुखों कि जड़ बताया था। परंतु उन्ही दुखों के भंवर में मानव मात्र सुख की एक लहर तलाश करता आया है, और उस एक सुख की लहर की तलाश उसे आज मंगल ग्रह पर और खुद उसके दिमाग के भीतर भी ले कर चली आयी है। और, इन दोनों जगहों पर पहुंच कर भी वो खोया नहीं है, वो वहाँ मौजूद तमाम रहस्यों को सुलझाने कि कोशिश कर रहा है।
कौड़ी कौड़ी पैसे और टुकड़ों टुकडों प्यार के लिए हम किस तरह भागते रहते हैं, यह हमें पता भी नहीं रहता है। कुछ बावरों को पता चल जाता है, कि वो अज्ञात के पीछे बेवजह, बेसबब भाग रहे हैं, लेकिन फिर भी भागते रहते हैं। क्योंकि इसी भागने में असली सुख है। रोज़ हार कर वापस लौटना और फिर सुबह जीत की तलाश में निकलना ही कुछ लोगों को जिंदा होने का एहसास देता है। यह एहसास महसूस करना इतना जरूरी हो जाता है, कि हम अपनी पुरसुकून जिन्दगी को भी दांव पर लगा देते हैं।

Parzania

Parzania is a newly discovered land full of chocolates, fruits, and ice-creams, where Parzan and his sister live with their parents and friends. Having seen these adorable kids playing in their parzania, you watch Naseer unable to stand and locate his lost son, Parzan. He has to find Parzan amongst a heap of corpses lying in backyard of the police station. One may not be able to realize the impact of a lost son on a happy family, but when you relate scenes…you are disturbed to an extent that you want to leave the cinema hall. I saw people leaving the hall because they could not watch the continuing violence on screen. I also saw my friends sobbing while seeing after-effects of riots.
There are tales which tell us where we stand as a society. Even if Parzania is an exaggerated story, the original version would not have been lesser in impact than horrible. The content of the movie is so heart-moving that brilliant performances by Naseer and Sarika seem less important. It’s like they did not have any other option to perform it the way they did. Sarika does not want to cry in front of her little kid to keep her faith in coming back of Parzan. She goes inside the bathroom, and weeps her heart out, but silently. You see sister of Parzan sitting in the court room, listening to terrible stories narrated by the riot affected habitants of the hell-city. A thought comes to your mind that some time ago, same girl was listening good stories of human race by her mother, and you realize the importance of 20 minutes of the movie in which a happy and good life was lived by this family. The girl lost all her concepts of good society when she confronts with evil of society in one single day. The day will change the complete perspective of her life.
The director has not compromised the content to any thing, which is very rare in today's Bollywood movies. The authenticity, sincerity and completeness of the content are compromised with some or other kind of commercialism in today’s times. Parzania is a movie which should be promoted at any cost. Even if this kind of movies can not be seen and appreciated by all, they should be made and supported.

Saturday, April 14, 2007

zameela

A play by third year students of National School of Drama (NSD)...
Every time I watch a movie, play or read a book, there is always one thing from which I can start talking or writing about it. This time there are so many things that I don’t know where to start. Anyways...
Freedom of expression can bring out the truth so harshly and upfront to our faces that it can play with our emotions. Movements, body language, dialogues, music and atmosphere, everything was bloody free, and I mean it. There were no artistic limits set for anything. The hard rock never seemed so "in place" to me and that too in a Hindi play. Hats off to the crew!!
There is a very thin line between the place where we stop getting emotional because of emotional content of artistic creations, and the place where the artistic creations force us to get emotional. The music and atmosphere of this play were extremely real and the play crossed the thin line. I could sense at times in the play that I was forced to get emotional but the plot was real and so the presentation, therefore I didn’t mind it.
Now, let me tell you about the plot of the play. The play is based on an autobiography of a sex-worker, Nalini Zaleema. She is a documentary film maker today and actively involved to help organize the sex-workers. The play is about the circumstances through which Zameela went through and became a sex-worker, mother, and documentary film maker from a normal child in Kerala.
Only, a play like this could have done justice to Nalini Zameela. As Zameela herself says, "150 saal purani meri lakkad-daadi ke zamaane ke niyamon aur kaanon ko main kyun maaun. Samay badalaa hai to kaanun aur niyam bhi badalane chhahiye." In the same way the crew has tried to be as expressive as possible to bring out the impact and message that Zameela wants to convey.
The play was so harsh that I myself felt uncomfortable watching it. And if we think about it, we are living in such a society. There are things happening in a small area of every city that we don’t even want to see it in a theatrical recreation, let apart seeing or going through it in real. And, please note, even then we don’t want to talk about it. Irony would not converse that meaning to explain the situation which "vidambanaa" in Hindi can. "Vidambanaa hai yeh hamaare samaaj ki."

Friday, April 13, 2007

गोदान

आप रो भी नहीं सकते और बिना रोये रह भी नहीं सकते। ऐसा है गोदान। अथाह व्यथा लेकिन इतनी जिजीविषा के साथ कि प्रेरणादायक बन जाती है वो व्यथा। प्रेमचंद जैसे विरले ही होते हैं जो ऐसा कुछ लिख सकते हैं कि इतना दुःख पढने के बाद आप दुःखी होना चाहते हैं लेकिन आपकी जिजीविषा और समझ आपको दुःखी नहीं होने देती।
गोदान करीब सौ साल पहले लिखा जाने के बावजूद आज भी उतना ही प्रासंगिक है और उसके बारे में बात करना भी। गोदान जैसे उपन्यासों की प्रासंगिकता कभी ख़त्म नहीं हो सकती। ऐसे उपन्यास देशकाल के परे होते हैं। गोदान मानवीय संवेदनाओं का इतना सटीक चित्रण करता है कि हर दसवें पन्ने पर हम अपने आप को उन चरित्रों में से ही कोई मानने लगते हैं।
आप होरी को कोसना चाहते हैं परंतु इतना सब घिनौना और गलीच उपस्थित है, उपन्यास में ही नहीं आपके आस पास भी, कि होरी के भोलेपन और झूठे घमंड और कोरे अंधविश्वास पर तरस ही आकर रह जाता है। धनिया एक ऐसा चरित्र जो अपने जीवन में तमाम दुःख झेलने के बाद भी अपनी मर्यादा , ईमानदारी और करुणा से भरी रहती है। स्त्री सुलभ चारित्रिक विशेषताएं कभी भी उससे अलग नहीं हो पाती। ममता, जिम्मेदारी और स्नेह से भरी धनिया भारतीय नारी का सही चित्र खींचती है।
आज के प्रगतिवादी और विकसित समाज के दावे भरने वाले ठेकेदार कितना ही रो गा ले कि ऐसी करुण कथाएं नए समाज में ढूंढे नहीं मिलेगी, हर दूसरे घर में क्या हर घर में कुछ ना कुछ ऐसी परिस्थितियाँ मिल ही जायेंगी जो गोदान के पन्नों में मौजूद होगीं।