कविता क्यों लिखना चाहता हूँ मैं,
अपने आप को जानने के लिए
दुनिया को महसूस करने के लिए
रिश्तों की कशिश को परखने के लिए
विचारों को बांधने के लिए
किसलिए, आख़िर किसलिए
या फ़िर इन सबसे अलग
ये पता चलने के बाद कि
कुछ तो भावुकता भरी, मादकता भरी
स्याही उकेर सकता हूँ,
अपनी शोहरत के लिए
दूसरों के दिल में जगह बनाने के लिए.
अभी तक उस शोहरत की आस
नहीं है,
उस चाहत की आस कि
अनजाने लोग भी मुझे जाने,
बस इतना ही चाहा है कि
परिचित लोग ही मुझे जाने.
जाने कि आख़िर क्या हूँ मैं
क्या सोचता हूँ मैं
किस हद तक सोचता हूँ मैं
क्यों सोचता हूँ मैं
वो भी यूं कि अभिमान सा है
'सा' नहीं 'है' - अपनी सोच पर
जो अपरिपक्व, नादान, और प्रतिक्रियात्मक
विचारशील और विध्वंसक भी है.
लेकिन यह भी है कि योगदान करना
चाहता हूँ, निस्वार्थ, निरंकुश
इस समाज में अपना भी अंश देना चाहता हूँ.
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