ख़ुद ही खोलता हूँ ताले-
अकेलेपन के-
बड़ी बड़ी चाबियों से.
घर लौटता हूँ,
या लौटता हूँ
बियाबान में
बियाबान से.
ये अकेलापन दोस्त भी है, दुश्मन भी
इसी अकेलेपन में लिख रहा हूँ,
केवल अकेलापन नहीं
गहरा अकेलापन है,
अंधेरे से सजा,
सर्दी से सिमटा,
बहुत खाली,
इसी खालीपन में मिलते हैं
लफ्ज़, शब्द और वाक्य भी
जो लिख सकूं,
संजो सकूं,
इसी अकेलेपन को कोसता हूँ
जो जोड़ता है मुझको मुझसे,
वरना खोया रहता हूँ
दुनिया में,
दुनिया के वीराने में,
अपने वीराने से भाग कर
छुप जाना चाहता हूँ
संसार के सन्नाटे में
दुबक कर,
फिर,
रोशनी हो गई है!
फिर,
सब खो गया है,
झट से अन्दर से कट गया हूँ,
फिर आ गया हूँ दुनिया में,
जैसे जागा हूँ-
एक अंधेरे में...
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