Monday, April 21, 2008

शीर्षक बाद में देते रहेंगे...

खोज, तलाश किसकी है
अनवरत
एक मंजिल पाओ तो
दूसरी को भागो
मील के पत्थरों की तरह
हर आने वाले पत्थर का
इंतज़ार
ज्यादा कचोटता है,
बनिस्पत,
जा चुके पत्थर को देख कर होने वाला
संतोष.
क्यों, जितना मिल जाए उसमें
खुश
नहीं है हम,
और क्यों चाहिए,
जब, और फिर भी चाहेंगे,
'और' की भूख कभी ख़त्म न होगी,
यही भूख जिंदगी है,
हर आने वाले कल के लिए
नई भूख चाहिए, नया लक्ष्य चाहिए
फिलहाल इस उम्र में अस्वीकृत है यह
की हर दिन एक सा गुजरे
इसी भूख के कारण शायद
विचार आना बंद हैं
तुकें बनना बंद हैं,
मिसरे मुकम्मल होना बंद हैं
जड़ हो चुके हैं विचार
जड़ हो चुकी है सोच
हाँ, सहारा चला गया है
जिसके बलबूते चढ़ता जाता था
शेरों की सीढियां
कविताओं की मंजिलें
प्यार में होना भी पूरा कर देता है,
अन्दर भरते खला के बावजूद
एक सहारा सा रहता है
हर दिन के लिए.

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