खुशी अन्दर छुपी बैठी रहती है
दुबक कर, सिकुड़ कर
कहीं एक छोटे से कोने में,
एक पल नहीं लगता
लेकिन
निकल कर, उचक कर
बाहर आने में,
फ़ैल जाने में,
कतरे कतरे में समाने में.
क्यों नहीं दुबकी रहती है
वहीं कोने में,
जब वापस ही जाना है उसे
उन कोनों में,
इन लम्हों लम्हों के लिए
आकर, होठों को
खिला कर,
क्यों चली जाती है,
और ज्यादा
कसकती है रूह,
एक बार
उसका स्वाद चख लेने के बाद.
यह दर्द ही मीठा लगे है,
नमकीन भी कभी कभी,
पर वो कड़वाहट,
जो खुशी के जाने के बाद,
छूट जाती है
बड़ी देर में जा पाती है,
चिपकी रह जाती है
जीभ पर,
अटकी रह जाती है
गले में,
निकलती ही नहीं.
किसी भी दर्द से फ़िर
बुझती ही नहीं और की प्यास,
किसी भी टीस से,
फिर कोई चेहरा,
कोई रंग,
किसी की एक जोड़ी आंखें,
खींच लाती हैं अन्दर से
अकेलेपन की कमजोरी,
किसी के साथ की उम्मीद,
किसी के हाथ की तसल्ली.
फिर
लड़ते रहते हैं
अपने आप से,
अपनी तन्हाई से,
कि बाहर क्यों नहीं निकलते
हम इस फिजूल की
उठापटक से,
युद्ध,
युद्ध-विराम,
गोष्ठियाँ,
शुरू होते हैं,
ख़त्म होते हैं,
चलती रहती है
एक अनवरत राजनीति,
कूटनीति भी
ख़ुद
अपने आप से ही.
कितना ही उतार लें,
ख़ुद को इन सफ़ेद पन्नों पर,
अन्दर वैसा का वैसा बना रहता है
काला रंग-
स्याह, तनहा, उदास, और
अजीब सा.
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