Tuesday, April 22, 2008

नया - पुराना

कहाँ से शुरू करूँ,
कहाँ से खत्म करूँ..
शुरू में ही ख़त्म हो जाते हैं,
ख़त्म में शुरू हो पाते हैं.
क्यों यह जिंदगी एक कशिश
से ज्यादा एक तलाश बन गई है,
क्यों यह दिन रातों की तरह
गुजरने लग गए हैं.
कहाँ से मांगूं,
कहाँ से पाऊं,
कहाँ से खोजूँ,
उसको कि, ख़ुद को..
यह भी तो नहीं पता!
किसको खोजूँ-
बीच में ही खो-जा-ता हूँ
खो-ज-ने में.
पुराने ही दिन-
उमड़ते रहते हैं रातों में,
पुराने ही लोग-
उमड़ते रहते हैं यादों में,
उन्ही को ढूँढता रहता हूँ
नए लोगों में,
छूट ही नहीं पाता हूँ उनसे,
दूर जा ही नहीं पाता हूँ उनसे,
ख़ुद को जहाँ पाता हूँ..
वहीं वो भी मिल जाते हैं,
वैसे ही मुस्कुराते हुए,
वैसे ही खिलखिलाते हुए,
वैसे ही मदमाते हुए,
वैसे ही बुलाते हुए,
कहाँ तक भागूं...
गानों में, ग़ज़लों में,
तस्वीरों में,
आंखों में, साँसों में
बस गई है जो यादें,
हर जगह, हर सू नज़र आ जाती हैं,
नया कुछ पा ही नहीं पाता हूँ,
पुराने को ही नया बना लेता हूँ.
पुराना ही हो गया हूँ शायद,
रोज़
नया होकर भी-
फिर कल
पुराना हो जाता हूँ...

बियाबान

ख़ुद ही खोलता हूँ ताले-
अकेलेपन के-
बड़ी बड़ी चाबियों से.
घर लौटता हूँ,
या लौटता हूँ
बियाबान में
बियाबान से.
ये अकेलापन दोस्त भी है, दुश्मन भी
इसी अकेलेपन में लिख रहा हूँ,
केवल अकेलापन नहीं
गहरा अकेलापन है,
अंधेरे से सजा,
सर्दी से सिमटा,
बहुत खाली,
इसी खालीपन में मिलते हैं
लफ्ज़, शब्द और वाक्य भी
जो लिख सकूं,
संजो सकूं,
इसी अकेलेपन को कोसता हूँ
जो जोड़ता है मुझको मुझसे,
वरना खोया रहता हूँ
दुनिया में,
दुनिया के वीराने में,
अपने वीराने से भाग कर
छुप जाना चाहता हूँ
संसार के सन्नाटे में
दुबक कर,
फिर,
रोशनी हो गई है!
फिर,
सब खो गया है,
झट से अन्दर से कट गया हूँ,
फिर आ गया हूँ दुनिया में,
जैसे जागा हूँ-
एक अंधेरे में...

Monday, April 21, 2008

आज की आखिरी...

रिश्ते खूनी, मरासिम रूहानी
सबकी अपनी अपनी कहानी,
एक चाय, तमाम सुखन
एक काफ़ी, तमाम अदब
आधे घंटे, कुछ लम्हे
बातें, केवल बातें
यहाँ की बातें,
वहां की बातें,
तेरी बातें,
मेरी बातें,
बातें, केवल बातें.
बातों से बनती बात,
बातों से सजती बात,
जादू सा नशा, या
नशे सा जादू-
बातों का नशा,
बातों का जादू.
बिखरती बातें,
छूटती बातें,
सिसकती बातें,
कसकती बातें,
क्यों हैं!! इतनी बातें..
आदि से बातें,
अंत तक बातें,
चलते चलते बातें,
रुकते रुकते बातें,
बातों से खुलते दिमाग,
बातों से सुलझते दिमाग.
फिर,
बिन बातों की बातें,
बातों के बीच की बातें,
खमोशी की बातें,
आंखों में बातें,
हाथों में बातें,
अंगुलियों में बातें,
कहाँ तक बातें,
बस बातें ही बातें,
और,
इतनी सारी बातों के बाद की,
खमोशी, तन्हाई और याद-
हाल में गुजरते माज़ी की-
चुप्पी बहुत देर तक....
बस,
चुप्पी.

अभी और भी हैं..

खुशी अन्दर छुपी बैठी रहती है
दुबक कर, सिकुड़ कर
कहीं एक छोटे से कोने में,
एक पल नहीं लगता
लेकिन
निकल कर, उचक कर
बाहर आने में,
फ़ैल जाने में,
कतरे कतरे में समाने में.
क्यों नहीं दुबकी रहती है
वहीं कोने में,
जब वापस ही जाना है उसे
उन कोनों में,
इन लम्हों लम्हों के लिए
आकर, होठों को
खिला कर,
क्यों चली जाती है,
और ज्यादा
कसकती है रूह,
एक बार
उसका स्वाद चख लेने के बाद.
यह दर्द ही मीठा लगे है,
नमकीन भी कभी कभी,
पर वो कड़वाहट,
जो खुशी के जाने के बाद,
छूट जाती है
बड़ी देर में जा पाती है,
चिपकी रह जाती है
जीभ पर,
अटकी रह जाती है
गले में,
निकलती ही नहीं.
किसी भी दर्द से फ़िर
बुझती ही नहीं और की प्यास,
किसी भी टीस से,
फिर कोई चेहरा,
कोई रंग,
किसी की एक जोड़ी आंखें,
खींच लाती हैं अन्दर से
अकेलेपन की कमजोरी,
किसी के साथ की उम्मीद,
किसी के हाथ की तसल्ली.
फिर
लड़ते रहते हैं
अपने आप से,
अपनी तन्हाई से,
कि बाहर क्यों नहीं निकलते
हम इस फिजूल की
उठापटक से,
युद्ध,
युद्ध-विराम,
गोष्ठियाँ,
शुरू होते हैं,
ख़त्म होते हैं,
चलती रहती है
एक अनवरत राजनीति,
कूटनीति भी
ख़ुद
अपने आप से ही.
कितना ही उतार लें,
ख़ुद को इन सफ़ेद पन्नों पर,
अन्दर वैसा का वैसा बना रहता है
काला रंग-
स्याह, तनहा, उदास, और
अजीब सा.

शीर्षक बाद में देते रहेंगे...

खोज, तलाश किसकी है
अनवरत
एक मंजिल पाओ तो
दूसरी को भागो
मील के पत्थरों की तरह
हर आने वाले पत्थर का
इंतज़ार
ज्यादा कचोटता है,
बनिस्पत,
जा चुके पत्थर को देख कर होने वाला
संतोष.
क्यों, जितना मिल जाए उसमें
खुश
नहीं है हम,
और क्यों चाहिए,
जब, और फिर भी चाहेंगे,
'और' की भूख कभी ख़त्म न होगी,
यही भूख जिंदगी है,
हर आने वाले कल के लिए
नई भूख चाहिए, नया लक्ष्य चाहिए
फिलहाल इस उम्र में अस्वीकृत है यह
की हर दिन एक सा गुजरे
इसी भूख के कारण शायद
विचार आना बंद हैं
तुकें बनना बंद हैं,
मिसरे मुकम्मल होना बंद हैं
जड़ हो चुके हैं विचार
जड़ हो चुकी है सोच
हाँ, सहारा चला गया है
जिसके बलबूते चढ़ता जाता था
शेरों की सीढियां
कविताओं की मंजिलें
प्यार में होना भी पूरा कर देता है,
अन्दर भरते खला के बावजूद
एक सहारा सा रहता है
हर दिन के लिए.

अभी फिलहाल प्रकाशित कराने दीजिये...

कविता क्यों लिखना चाहता हूँ मैं,
अपने आप को जानने के लिए
दुनिया को महसूस करने के लिए
रिश्तों की कशिश को परखने के लिए
विचारों को बांधने के लिए
किसलिए, आख़िर किसलिए
या फ़िर इन सबसे अलग
ये पता चलने के बाद कि
कुछ तो भावुकता भरी, मादकता भरी
स्याही उकेर सकता हूँ,
अपनी शोहरत के लिए
दूसरों के दिल में जगह बनाने के लिए.
अभी तक उस शोहरत की आस
नहीं है,
उस चाहत की आस कि
अनजाने लोग भी मुझे जाने,
बस इतना ही चाहा है कि
परिचित लोग ही मुझे जाने.
जाने कि आख़िर क्या हूँ मैं
क्या सोचता हूँ मैं
किस हद तक सोचता हूँ मैं
क्यों सोचता हूँ मैं
वो भी यूं कि अभिमान सा है
'सा' नहीं 'है' - अपनी सोच पर
जो अपरिपक्व, नादान, और प्रतिक्रियात्मक
विचारशील और विध्वंसक भी है.
लेकिन यह भी है कि योगदान करना
चाहता हूँ, निस्वार्थ, निरंकुश
इस समाज में अपना भी अंश देना चाहता हूँ.

सक्रिय फिर से.. पहले की लिखी रखीं हैं...

जिसे, जब, जैसे
होना था,
वो, तब,
नहीं है,
शेष किसे, कब कैसे
होना है,
फर्क पड़ता है?
नहीं
नहीं ही पड़ता है
कोई हो के भी नहीं,
तुम भी नहीं,
ऐसा क्यों है !!