Thursday, November 15, 2007

दरअसल बात निर्मल वर्मा की है..

जब भी लगने लगता है कि अनुभूति की समझ, संवेदनाओं की पकड़ थोड़ी कमजोर पड़ रही है, निर्मल वर्मा को पढ़ना चालू कर देता हूँ। अविश्वसनीय तरीके से अनुभूति को शब्दों में बांधते चलते हैं। हर उपन्यास, हर कहानी किसी और ही संवेदना के स्तर पर ले जाके छोड़ देती है। दुःख और सुख में बस दु और सु का ही अंतर रह जाता है। पढ़ते पढ़ते पता ही नहीं चलता कि चरित्रों का दुःख किस भावना को उत्पन्न कर रहा है। बस इतना समझ में आता है कि संवेदना जो साथ साथ चरम पर पहुंच रही है, कब से आप ऐसे ही कुछ की तलाश में थे। निर्जीव वस्तुएं किस तरह से हमारे आस पास एक जीवंत संसार बुन देती हैं, यह निर्मल वर्मा को पढ़ कर पता चल जाता है। बहुत कुछ जो आप महसूस करना भूल गए थे, चलते फिरते, दोस्तों से बात करते, सफर करते, और किसी भी सामान्य से क्षण में, वापस आपके सामने आना लगता है।

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