Sunday, November 18, 2007

अस्तित्व

ये हमारे 'काश!' ही ले डूबेंगे हमें एक दिन,
दर्द को ही दवा बना लेते हैं हम,
मर्ज़ में ही राहत ढूँढ़ लेते हैं हम।

यह पागलपन इस कदर तो न बढ़ने दो,
ये वहाशियत इस कदर तो न बुझने दो,
वहशियत ने ही तो जिंदा रखा है हमें,
रुमानियत तो भून भून खाती हमें!

रुमानियत जिलाएगी तुम्हे,
भरम हैं तुम्हारे-
वहशियत मारती है तुम्हे,
करम हैं तुम्हारे।

मरने और जीने का फर्क जो समझ पाते,
तो यह बेहूदा सपने नहीं आते-
जिन में जिंदगी से ज्यादा जिए हैं,
जिन में मरने की आस किये हैं।

जिंदा रहना इतना ही आसान होता,
तो जिंदा होने के माने न बदले होते-
मरना इतना ही मुश्किल होता,
तो रोज़ न हम मरते होते।

जिए जाओ दोस्त,
हमसफ़र मिल जाये कोई,
इसी आस में जिए जाओ,
जब जहाँ मुलाक़ात होगी,
उस पल के छल के लिए-
जिए जाओ!

मुस्तक़बिल हमारे हमने ही लिखे हैं,
शब-ओ-सहर हमारे हमने ही बुने हैं,
वो ऊपर बैठा अगर लिख ही पाता-
तो इतना बुरा न लिखा होता।

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