Thursday, November 15, 2007

जब दर्द नहीं था सीने में....पुरानी बात हो गयी है फिर भी..

सिलसिले थे मेरी नादान लगन के,
जो चिथड़े चिथड़े
अब झुलस कर राख हैं।
खाकों में मुक़द्दर ढूंढते रहे
और एक मुस्कराहट में
तकदीरों की जागीरें कैद हैं।
बेपनाह ख़ुशी से
लबालब हैं दो आंखें
कि तमाम दर्द सिमट कर मोती हैं।
ना इंतज़ार, ना उम्मीद,
ना कविता, ना अश-आर,
एक ख़ला है जिसमें
बिखरे तमाम मोतियों के उजाले हैं।

रौशन हैं इनसे अँधेरे
आने वाली मंजिलों के,
कुदरत रौशन रखे राहें भी
जिसके नए सफर के आगाज़ हैं।

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