Sunday, October 28, 2007

शायद एक नज़्म

खो कर खुदी, ढूंढ रहा हूँ तुमको मैं
पढ़ कर बदी, लिख रहा हूँ माज़ी मैं

आसान नहीं, इस दरिया में साहिल पाना
तूफानों में दरियादिल मौजों ने हमें संभाला

पलकों की कलम, अश्कों की स्याही और आंखों के सफे
बह गए हैं कितने ही अफ़साने, अनसुने और अनकहे

कोहरे का सूरज बनो, इन सर्दीली सुबहों में
थरथरायेँ बेजार होंठ, तुम्हे पुकारने के लिए

दर्द तो तनहा झेल जाती है, मेरी खूंखार खुद्दारी
ख़ुशी से नाचता मन महरूम रहे, तालों से तुम्हारी।

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