Friday, April 13, 2007

गोदान

आप रो भी नहीं सकते और बिना रोये रह भी नहीं सकते। ऐसा है गोदान। अथाह व्यथा लेकिन इतनी जिजीविषा के साथ कि प्रेरणादायक बन जाती है वो व्यथा। प्रेमचंद जैसे विरले ही होते हैं जो ऐसा कुछ लिख सकते हैं कि इतना दुःख पढने के बाद आप दुःखी होना चाहते हैं लेकिन आपकी जिजीविषा और समझ आपको दुःखी नहीं होने देती।
गोदान करीब सौ साल पहले लिखा जाने के बावजूद आज भी उतना ही प्रासंगिक है और उसके बारे में बात करना भी। गोदान जैसे उपन्यासों की प्रासंगिकता कभी ख़त्म नहीं हो सकती। ऐसे उपन्यास देशकाल के परे होते हैं। गोदान मानवीय संवेदनाओं का इतना सटीक चित्रण करता है कि हर दसवें पन्ने पर हम अपने आप को उन चरित्रों में से ही कोई मानने लगते हैं।
आप होरी को कोसना चाहते हैं परंतु इतना सब घिनौना और गलीच उपस्थित है, उपन्यास में ही नहीं आपके आस पास भी, कि होरी के भोलेपन और झूठे घमंड और कोरे अंधविश्वास पर तरस ही आकर रह जाता है। धनिया एक ऐसा चरित्र जो अपने जीवन में तमाम दुःख झेलने के बाद भी अपनी मर्यादा , ईमानदारी और करुणा से भरी रहती है। स्त्री सुलभ चारित्रिक विशेषताएं कभी भी उससे अलग नहीं हो पाती। ममता, जिम्मेदारी और स्नेह से भरी धनिया भारतीय नारी का सही चित्र खींचती है।
आज के प्रगतिवादी और विकसित समाज के दावे भरने वाले ठेकेदार कितना ही रो गा ले कि ऐसी करुण कथाएं नए समाज में ढूंढे नहीं मिलेगी, हर दूसरे घर में क्या हर घर में कुछ ना कुछ ऐसी परिस्थितियाँ मिल ही जायेंगी जो गोदान के पन्नों में मौजूद होगीं।

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