Sunday, April 29, 2007

माने

अगर कोई नीचे लिखी कविता को पढे तो यह भी सोच सकता है कि क्या अव्वल दर्जे की बकवास लिख रखी है। लेकिन अगर आप ने किसी को चाहा है तो आपको पता हो या ना हो आप इन हालातों से जरूर गुजरे होंगे। कवि ने इतना सूक्ष्म विवेचन कर रखा है छोटी छोटी बातों का, शायद महसूस करने वाले के भी पकड़ में ना आने पाए। लेकिन कविता इसी को कहते हैं शायद।
और जब आपको यह पता चलता है, कि आपने जैसा पहले कभी, किसी के लिए महसूस किया था, वो ऐसे ही फालतू का रुमानीपन नहीं था, बल्कि उसके भी माने थे। अगर किसी और ने भी, वैसा ही कुछ, किसी और के लिए, कभी और महसूस किया है, तो यह बकवास तो नहीं हो सकती है। हाँ, अगर हम इंसानी जज्बातों को कि बकवास मान लें तो बात अलग है।

प्रतीक्षा करो

प्रतीक्षा करो
कि वह अभी घर में नहीं है;
प्रतीक्षा करो
कि वह अभी अपने काम में लगी है;
प्रतीक्षा करो कि वह सो रही है;
प्रतीक्षा करो कि वह नहा रही है;

प्रतीक्षा करो कि वह सपने में है;
प्रतीक्षा करो कि वह सच बुन रही है;
प्रतीक्षा करो कि वह दूर से आ रही है;
प्रतीक्षा करो कि वह थककर कहीँ जा रही है;

प्रतीक्षा करो कि वह जाना नहीं चाहती;
प्रतीक्षा करो कि वह जा रही है;
प्रतीक्षा करो कि वह आना नहीं चाहती;
प्रतीक्षा करो कि वह आ रही है;

प्रतीक्षा करो कि वह कहे
तुम कब से प्रतीक्षा कर रहे हो?
प्रतीक्षा करो कि वह कहे
अच्छा हुआ कि तुम प्रतीक्षा कर रहे हो!

प्रतीक्षा करो
क्योंकि वह प्रतीक्षा कर रही है।

- अशोक बाजपेयी

Friday, April 27, 2007

एक तृप्त आदमी

मेरा मित्र तो उन पर मुग्ध है। कहता है -- 'ऐसा आदमी दुर्लभ है। दुनिया में निराशा, विकलता, पिपासा और कुंठा के पुतले ही देखने में आते हैं। तृप्त आदमी आउट-ऑफ़-स्टॉक होता जाता है। "एन एल मास्टर" झरना है, रेगिस्तान का। उसे देख लेने से ऐसा लगता है कि जैसे तीर्थ स्नान कर लिया हो। वह पूर्ण तृप्त आदमी है। उसे कोई भूख नहीं है।' और मुझे याद आता है कि पिछले साल जब मैं बीमार पड़ा था, तब मेरी भी भूख मर गयी थी। अच्छे से अच्छे पकवान मेरे सामने रहते थे और मैं मुँह फेर लेता था।

इससे पहले वाले ब्लॉग में जो कुछ मैंने लिखा है, ऊपर लिखा उसी का विस्तार है, जो मैंने अगले ही दिन हरि शंकर परसाई के एक व्यंग्य में पढ़ा था। और ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है, जब भी मैंने कुछ अच्छा पढ़ा, लिखा या देखा है, कुछ और भी उसी से मिल जुला देखने, सुनने को मिला है। और स्पष्ट करता हुआ, सूत्रों को जोड़ कर एक कहानी सा बनता हुआ।

Friday, April 20, 2007

प्यार और पैसे की प्यास

यदि अक्षरों के संयोजन कि ओर ध्यान देवें तो पायेंगें कि प्यास, प्यार और पैसे की होना कुछ अनोखा नहीं लगता। बहुत बार यह विचार मन में आता है कि जो वस्तुएं प्रकृति ने बनायी हैं, उनमें ऐसा तारतम्य है, जैसा कहीँ और भी नहीं मिल सकता। कहानियो के सूत्र और रेशे इस तरह जुडते चलते हैं कि एक उपन्यास बन जता है। अगर आपने 'सूरज का सातवां घोड़ा' पढ़ा हो, तो आपके लिए प्रकृति के रचनाकर्म को समझना काफी आसान हो जाएगा।
यह विचारों कि नदी ही है जो बह कर बात को कहीँ से कहीँ ले जाती है। बात हो रही थी प्यार और पैसे की प्यास की। प्यास ना हो तो यह दुनिया ही ना हो, जिसे तृष्णा कह कर गौतम बुद्ध नामक महात्मा ने सारे दुखों कि जड़ बताया था। परंतु उन्ही दुखों के भंवर में मानव मात्र सुख की एक लहर तलाश करता आया है, और उस एक सुख की लहर की तलाश उसे आज मंगल ग्रह पर और खुद उसके दिमाग के भीतर भी ले कर चली आयी है। और, इन दोनों जगहों पर पहुंच कर भी वो खोया नहीं है, वो वहाँ मौजूद तमाम रहस्यों को सुलझाने कि कोशिश कर रहा है।
कौड़ी कौड़ी पैसे और टुकड़ों टुकडों प्यार के लिए हम किस तरह भागते रहते हैं, यह हमें पता भी नहीं रहता है। कुछ बावरों को पता चल जाता है, कि वो अज्ञात के पीछे बेवजह, बेसबब भाग रहे हैं, लेकिन फिर भी भागते रहते हैं। क्योंकि इसी भागने में असली सुख है। रोज़ हार कर वापस लौटना और फिर सुबह जीत की तलाश में निकलना ही कुछ लोगों को जिंदा होने का एहसास देता है। यह एहसास महसूस करना इतना जरूरी हो जाता है, कि हम अपनी पुरसुकून जिन्दगी को भी दांव पर लगा देते हैं।

Parzania

Parzania is a newly discovered land full of chocolates, fruits, and ice-creams, where Parzan and his sister live with their parents and friends. Having seen these adorable kids playing in their parzania, you watch Naseer unable to stand and locate his lost son, Parzan. He has to find Parzan amongst a heap of corpses lying in backyard of the police station. One may not be able to realize the impact of a lost son on a happy family, but when you relate scenes…you are disturbed to an extent that you want to leave the cinema hall. I saw people leaving the hall because they could not watch the continuing violence on screen. I also saw my friends sobbing while seeing after-effects of riots.
There are tales which tell us where we stand as a society. Even if Parzania is an exaggerated story, the original version would not have been lesser in impact than horrible. The content of the movie is so heart-moving that brilliant performances by Naseer and Sarika seem less important. It’s like they did not have any other option to perform it the way they did. Sarika does not want to cry in front of her little kid to keep her faith in coming back of Parzan. She goes inside the bathroom, and weeps her heart out, but silently. You see sister of Parzan sitting in the court room, listening to terrible stories narrated by the riot affected habitants of the hell-city. A thought comes to your mind that some time ago, same girl was listening good stories of human race by her mother, and you realize the importance of 20 minutes of the movie in which a happy and good life was lived by this family. The girl lost all her concepts of good society when she confronts with evil of society in one single day. The day will change the complete perspective of her life.
The director has not compromised the content to any thing, which is very rare in today's Bollywood movies. The authenticity, sincerity and completeness of the content are compromised with some or other kind of commercialism in today’s times. Parzania is a movie which should be promoted at any cost. Even if this kind of movies can not be seen and appreciated by all, they should be made and supported.

Saturday, April 14, 2007

zameela

A play by third year students of National School of Drama (NSD)...
Every time I watch a movie, play or read a book, there is always one thing from which I can start talking or writing about it. This time there are so many things that I don’t know where to start. Anyways...
Freedom of expression can bring out the truth so harshly and upfront to our faces that it can play with our emotions. Movements, body language, dialogues, music and atmosphere, everything was bloody free, and I mean it. There were no artistic limits set for anything. The hard rock never seemed so "in place" to me and that too in a Hindi play. Hats off to the crew!!
There is a very thin line between the place where we stop getting emotional because of emotional content of artistic creations, and the place where the artistic creations force us to get emotional. The music and atmosphere of this play were extremely real and the play crossed the thin line. I could sense at times in the play that I was forced to get emotional but the plot was real and so the presentation, therefore I didn’t mind it.
Now, let me tell you about the plot of the play. The play is based on an autobiography of a sex-worker, Nalini Zaleema. She is a documentary film maker today and actively involved to help organize the sex-workers. The play is about the circumstances through which Zameela went through and became a sex-worker, mother, and documentary film maker from a normal child in Kerala.
Only, a play like this could have done justice to Nalini Zameela. As Zameela herself says, "150 saal purani meri lakkad-daadi ke zamaane ke niyamon aur kaanon ko main kyun maaun. Samay badalaa hai to kaanun aur niyam bhi badalane chhahiye." In the same way the crew has tried to be as expressive as possible to bring out the impact and message that Zameela wants to convey.
The play was so harsh that I myself felt uncomfortable watching it. And if we think about it, we are living in such a society. There are things happening in a small area of every city that we don’t even want to see it in a theatrical recreation, let apart seeing or going through it in real. And, please note, even then we don’t want to talk about it. Irony would not converse that meaning to explain the situation which "vidambanaa" in Hindi can. "Vidambanaa hai yeh hamaare samaaj ki."

Friday, April 13, 2007

गोदान

आप रो भी नहीं सकते और बिना रोये रह भी नहीं सकते। ऐसा है गोदान। अथाह व्यथा लेकिन इतनी जिजीविषा के साथ कि प्रेरणादायक बन जाती है वो व्यथा। प्रेमचंद जैसे विरले ही होते हैं जो ऐसा कुछ लिख सकते हैं कि इतना दुःख पढने के बाद आप दुःखी होना चाहते हैं लेकिन आपकी जिजीविषा और समझ आपको दुःखी नहीं होने देती।
गोदान करीब सौ साल पहले लिखा जाने के बावजूद आज भी उतना ही प्रासंगिक है और उसके बारे में बात करना भी। गोदान जैसे उपन्यासों की प्रासंगिकता कभी ख़त्म नहीं हो सकती। ऐसे उपन्यास देशकाल के परे होते हैं। गोदान मानवीय संवेदनाओं का इतना सटीक चित्रण करता है कि हर दसवें पन्ने पर हम अपने आप को उन चरित्रों में से ही कोई मानने लगते हैं।
आप होरी को कोसना चाहते हैं परंतु इतना सब घिनौना और गलीच उपस्थित है, उपन्यास में ही नहीं आपके आस पास भी, कि होरी के भोलेपन और झूठे घमंड और कोरे अंधविश्वास पर तरस ही आकर रह जाता है। धनिया एक ऐसा चरित्र जो अपने जीवन में तमाम दुःख झेलने के बाद भी अपनी मर्यादा , ईमानदारी और करुणा से भरी रहती है। स्त्री सुलभ चारित्रिक विशेषताएं कभी भी उससे अलग नहीं हो पाती। ममता, जिम्मेदारी और स्नेह से भरी धनिया भारतीय नारी का सही चित्र खींचती है।
आज के प्रगतिवादी और विकसित समाज के दावे भरने वाले ठेकेदार कितना ही रो गा ले कि ऐसी करुण कथाएं नए समाज में ढूंढे नहीं मिलेगी, हर दूसरे घर में क्या हर घर में कुछ ना कुछ ऐसी परिस्थितियाँ मिल ही जायेंगी जो गोदान के पन्नों में मौजूद होगीं।