धूल, धुआं, गुबार, धुंध
इसी में जी जाते हैं कुछ लोग
रोशनी, अँधेरे को चीरने की कोशिश में
दम तोड़ती चलती है,
झरोखों से आती किरणें
उजाले में अँधेरे की हैं
या
अँधेरे में उजालों की
इसी गुथमगुत्थी में उलझी है
कुछ लोगों की जिंदगी।
हम कितने खुश हैं यहाँ
लाखों में तनखा पा कर
वो कितने खुश हैं वहाँ
सैकड़ों में मजदूरी पा कर,
मजदूरों को पता है
यही उनकी किस्मत, भूत, भविष्य है,
हमें पता है हमारा भविष्य
उज्ज्वलतर हो सकता है.
लेकिन,
कुछ ऐसे भी हैं
जो बीच में हैं, बीचों के बीच में
और ऊपर उठना चाहते हैं-
उठने की चाहत में गिर रहे हैं
हर दिन, हर रोज़, हर रात
मर रहे हैं रोज़,
हर घड़ी, हर समय।
और पाने की चाहत
चाहत, इच्छा, तृष्णा और कामना
जो पैदा की है-
करोड़ों में ऐश करने वालो ने
क्यूंकि उन्हें अरबों में ऐश करनी है,
सैकड़ों, लाखों, करोडों और अरबों के
खेल में
हज़ारों वाले पिस रहे हैं,
हज़ारों वाले,
जिनकी चाहत, भूख, प्यास
ख़त्म ही नहीं होती,
खतम होती है
तो करोड़ों वाले फिर पैदा कर देते हैं
और पैसा पाने की चाहत,
उनके ऊपर उठने की चाहत,
अर्थव्यवस्था पाल रही है,
अर्थव्यवस्था सीच रही है।
हम लाखों वालों के पास
साधन हैं खरीदने के आज के हिसाब से,
कल भी होंगे साधन खरीदने के
कल के हिसाब से,
उधर सैकड़ों वालों का संतोष बहुत बड़ा है,
उनकी पोटली में पेट भरने के मुश्किल से पैसे हैं,
लेकिन हम दोनों के बीच
वही हज़ारों वाले हैं-
जिनके पास रोटी के लिए भी पैसे हैं,
दारु के लिए भी,
पानी के लिए भी,
मुर्गे के लिए भी,
आंखों में लालच लिए वे गिर रहे हैं-
अपनी ही आंखों में
एक एक पैसा बचाने के लिए,
एक एक पैसा दबाने के लिए,
एक एक पैसा हड़पने के लिए।
बहुत सारे गलत हैं,
जिन्हें हमने सही मान लिया है
बहुत सारे सही है,
जिन्हें हमने गलत मान लिया है
और हम वो माँ बाप हैं,
हम वो माँ बाप होंगे-
जो यही गलत-सही, सही-गलत
आने वाली नस्लों को सिखायेगें,
जब पैसा दुनिया चलाएगा
अभी भी चला रहा है लेकिन
कहीं जाकर, किसी सीमा पर
जब अति हो जाती है,
कुछ लोगो का इमान
धिक्कारने लगता है
यह लगता है-
और अति, पैसे को ही ले दुबेगी
तो अति रोक दी जाती है
अच्छाई आगे बढ़ा दी जाती है
गलत, बुरा, अन्याय तोड़ता है दम।
लेकिन हम,
हम !
तो ऐसे हो गए हैं,
तंत्र को सुधारने की बजाय,
तंत्र को सुलझाने की बजाय,
देखना भी नापसंद करते हैं,
हम भूल जाते हैं अक्सर
वही पुलिस हमारे आसपास है
हम भूल जाते हैं
वही वकील साथ में है
जिसने बलात्कारी को जाने दिया था
भागने दिया था,
हम मुजरिम को तो मुआफ करना नहीं चाहते,
लेकिन, उन वकीलों, पुलिसवालों, और जजों के साथ
खाते, पीते, उठते, बैठते शर्म महसूस नहीं करते।
हम सब गिर गए हैं,
एक कुएं में
जहाँ से, अन्धकार से, रसातल से
ज्यादा से ज्यादा
चिल्ला लेते हैं, बोल लेते हैं
बहस कर लेते हैं,
लेकिन बाहर नहीं निकलना चाहते
जमीन पर क्या हो रहा है
नहीं देखना चाहते।
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