Wednesday, November 14, 2007

मौसम

सर्दियों की शामों में ही अकेलापन होता है। फिलहाल तो मैं अकेला ही हूँ लेकिन लगता है कि महफ़िल में मनचीन्हे दोस्तों के साथ भी होता, अन्दर अकेलापन ही भरा रहता। ये अजीब सा सफ़ेद, नीला, काला, धुंध से भरा और धुंध से खुल चुका सा आसमान। कहीं तनहा कहीं कतार में खडे दरख्त। कुछ और भी ज्यादा चमकती रोशनियाँ। साफ पानी से धुली धुली सी प्रतीत होती सड़कें। पल पल और ठंडी होती जाती हवा। सब कुछ साथ मिलकर एक ऐसा वातावरण, एक ऐसा समां बाँध देता है कि भीड़ भड़क्के, चमक दमक और शोर शराबे से कुढ़न और कोफ्त सी होने लगती है। जी चाहता है कि विशुद्ध मौसम का डूब कर आनंद लिया जाये। फिर, किसी के साथ की कामना उत्पन्न हो जाती है। जो धीरे धीरे इतनी तीव्र और तीक्ष्ण, कसक से भरपूर हो जाती है कि वापस चमक दमक में जाने की चाह हो आती है। आपका मन मस्तिष्क आपसे ही गद्दारी करने लगता है। मन मक्कार।
सब साथी इस तरह से तितर बितर हो रखे हैं कि अकेलापन एक साथ गर्व और बोझ की अनुभूति देता चलता है।

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