Monday, November 19, 2007

क्षणभंगुर

क्या लिखना अच्छा रहता है? जो कुछ भी मन में चल रहा हो उसे शब्दों का जामा पहनना सही है, किसी भी तरीके से लाभदायक है। क्या लाभ गिनने, समझने की भी जरुरत है। अभी कुछ ही देर पहले जो कुछ भी लिखा था उस एहसास का रत्ती भर भी बाक़ी नहीं रहा है ज़हन में। कुछ बात कर ली किसी से, सब जैसे ख़त्म हो गया। एक पल था जो बीत गया और अपने पीछे एक भी निशान नहीं छोड़ गया। थोडी अतिशयोक्ति हो रही है, लेकिन फिर बात का प्रभाव नहीं रह जाएगा।
हाँ लिखना जरुरी है। लिखने से सोच रेकॉर्ड हो जाती है। आप पीछे जाके देख सकते हैं कि थोड़ी ही देर पहले किस मूड में थे। क्या क्या महसूस किये जा रहे थे। बहुत कुछ हैं जो अपने बारे में हम लिखने से जान सकते हैं, हमारी कमजोरियां, ताक़त, विश्वास, समझ और अपने बारे में बहुत सारा ऐसा कुछ जिसे कुछ नाम नहीं दिया जा सकता। लिखना एक साथी बन जाता है। सामने उभरते अक्षर आपके सबसे घोर मित्र बन जाते हैं, जो आपकी हर बात सुनते समझते चलते हैं। वो उन सब मित्रों को भी स्वीकार कर लेते हैं, जिनसे आप तभी कि तभी मिलना चाहते हैं। जिनसे मिलने के लिए आप इन शब्दों में खुद को ढूँढ़ रहे हैं। ऐसा ही है मन। ऐसे ही हैं मन के खेल।
लगातार लिखते चलना कितना रोमांचक होगा। हर ख्याल, हर तस्वीर जो दिमाग में उभरती है, उसे पन्नों पर उतारते चलना। हमारी चाहत, हमारी हवस, हमारी कल्पना, हमारी समझ, हमारी उलझन, हमारे सुख हमारे दुःख। वो छोटी छोटी बातें जिनको सोच कर हम एक पल के लिए सुखी हो लेते हैं, एक पल के लिए दुखी हो जाते हैं। सब कुछ।। और कितना कुछ है, रेकॉर्ड करने को। अगर हम कर पायें तो।

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