ये हमारे 'काश!' ही ले डूबेंगे हमें एक दिन,
दर्द को ही दवा बना लेते हैं हम,
मर्ज़ में ही राहत ढूँढ़ लेते हैं हम।
यह पागलपन इस कदर तो न बढ़ने दो,
ये वहाशियत इस कदर तो न बुझने दो,
वहशियत ने ही तो जिंदा रखा है हमें,
रुमानियत तो भून भून खाती हमें!
रुमानियत जिलाएगी तुम्हे,
भरम हैं तुम्हारे-
वहशियत मारती है तुम्हे,
करम हैं तुम्हारे।
मरने और जीने का फर्क जो समझ पाते,
तो यह बेहूदा सपने नहीं आते-
जिन में जिंदगी से ज्यादा जिए हैं,
जिन में मरने की आस किये हैं।
जिंदा रहना इतना ही आसान होता,
तो जिंदा होने के माने न बदले होते-
मरना इतना ही मुश्किल होता,
तो रोज़ न हम मरते होते।
जिए जाओ दोस्त,
हमसफ़र मिल जाये कोई,
इसी आस में जिए जाओ,
जब जहाँ मुलाक़ात होगी,
उस पल के छल के लिए-
जिए जाओ!
मुस्तक़बिल हमारे हमने ही लिखे हैं,
शब-ओ-सहर हमारे हमने ही बुने हैं,
वो ऊपर बैठा अगर लिख ही पाता-
तो इतना बुरा न लिखा होता।
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