मेरा मित्र तो उन पर मुग्ध है। कहता है -- 'ऐसा आदमी दुर्लभ है। दुनिया में निराशा, विकलता, पिपासा और कुंठा के पुतले ही देखने में आते हैं। तृप्त आदमी आउट-ऑफ़-स्टॉक होता जाता है। "एन एल मास्टर" झरना है, रेगिस्तान का। उसे देख लेने से ऐसा लगता है कि जैसे तीर्थ स्नान कर लिया हो। वह पूर्ण तृप्त आदमी है। उसे कोई भूख नहीं है।' और मुझे याद आता है कि पिछले साल जब मैं बीमार पड़ा था, तब मेरी भी भूख मर गयी थी। अच्छे से अच्छे पकवान मेरे सामने रहते थे और मैं मुँह फेर लेता था।
इससे पहले वाले ब्लॉग में जो कुछ मैंने लिखा है, ऊपर लिखा उसी का विस्तार है, जो मैंने अगले ही दिन हरि शंकर परसाई के एक व्यंग्य में पढ़ा था। और ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है, जब भी मैंने कुछ अच्छा पढ़ा, लिखा या देखा है, कुछ और भी उसी से मिल जुला देखने, सुनने को मिला है। और स्पष्ट करता हुआ, सूत्रों को जोड़ कर एक कहानी सा बनता हुआ।
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