Sunday, October 28, 2007

रोज़ एक..

क्या ख़ता हुई है, यह भी नहीं बताते हैं,
बिना बात किये बतियाते हैं सरकार !

कदमों तक को साथ चलाने में रंज हो उन्हें,
बगल में हो कर भी, अलग चलते हैं सरकार !

तुम्हें कोसने के लिए खुद को कोसते हैं हम,
और वहाँ बेरुखी से खुश होते हैं सरकार !

अपने अरमानों को इतना ज़ब्त किया है हमने,
क्यों अश्कों को ज़हर बनाते हैं सरकार !

टूटे हुए दिल से रूखे लबों पर हंसी लाते हैं,
क्यों हंसते को रुलाते, फिर हंसाते हैं सरकार !

हमें भी रंज हो जिस बात, पर तड़पे फिर रात भर
खता करवा के गिला क्यों करवाते हैं सरकार !

आशियाने में मेरे तनहा सी उदासी है,
क्यों नहीं इसे अपनी सादगी से सजाते हैं सरकार!!

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