Wednesday, October 31, 2007

जवाहरात

हीरे, मोती और पन्ने भी हमारे आस पास तो नहीं, हाँ थोडा चलकर ही मिल सकते हैं। लेकिन हम लोहे लंगड़ से ही इतने खुश रहते हैं, कि उन अनमोल पत्थरों के बारे में सोच ही नहीं पाते।
रात में ९:३० कि टैक्सी से घर जाना था। लेकिन टैक्सी में बैठा ही था, कि कोई महानुभाव आ गए जगह मांगने, ३ लोग पहले ही पिछली सीट पर बैठे थे, चौथे के लिए जगह नहीं थी। भाई साहिब अड़ ही गए, जगह दें, जगह दें। हमने कहने कि कोशिश कि आपके लिए शायद जगह नहीं है, माने ही ना। तो मैं फटाक से भागा बस की ओर जो बस निकलने ही वाली थी। और बस में घुसते ही देखा कि विशाल बैठा था। मन बाग़ बाग़ हो गया। चेहरा देखते ही। चेहरों ने बयान कर दी थी, एक दूसरे की ख़ुशी। होते हैं कुछ लोग, जिनके साथ बात करके लगता है, कि अभी तक किन बेवकूफों, नादानों और जाहिलों के बीच बैठे थे। मुझे नहीं पता कि वो लोग जाहिल होंगे लेकिन लगता ऐसा ही है।
बात करके लगता है कि ऐसा ही कुछ होना चाहिए दोस्त। शामें ऐसी ही कटनी चाहिऐ, खासकर जब आप ऑफिस से थक कर लौटे हों। मैं अभी तक उन चौथे महानुभाव को शुक्रिया अदा कर रहा हूँ, जो एन वक़्त पर जगह मांगने आ गए थे। एक बहुत अच्छी शाम दे गए वो मुझे।
ये जवाहरात क्यों हम नज़रंदाज़ करते रहते हैं, क्यों हम कबाड़ के बीच कि ज़िंदगी को ही सबसे अच्छी ज़िंदगी मान कर बैठ जाते हैं। क्यों हम हीरों को खोजना बंद कर देते हैं, खोजना तो छोड़िये हम तो देखना भी नहीं चाहते।

Tuesday, October 30, 2007

वादा तोड़ा है मैंने, रोज़ एक का वादा था..

यह सपने मत दिखाओ मुझे,
टूटते हैं सपने, टूटता हूँ मैं,
जुड़ते हैं सपने, बंटता हूँ मैं,
सच सपने की चाकी यह, पिसता हूँ मैं
काश! यह सपने आपको भी आते..

मुकद्दर लिखो इन सपनों का अब तुम,
मुकम्मल करो इन सपनों को अब तुम,
सपनों सा जीवन होगा, जीवन एक सपना
अपूर्व सुन्दर होगा, निर्मल प्रेम अपना
काश! यह सपने आपको पा जाते...

दास्तान तुम मेरी बनो हम तेरे अफ़साने
किस्से चर्चे चले हमारे सपनों से दीवाने
ये दीवाने सपने, हमें पागल क्यों नहीं बनाते
काश! यह सपने आपको मिल जाते ...

Sunday, October 28, 2007

रोज़ एक..

क्या ख़ता हुई है, यह भी नहीं बताते हैं,
बिना बात किये बतियाते हैं सरकार !

कदमों तक को साथ चलाने में रंज हो उन्हें,
बगल में हो कर भी, अलग चलते हैं सरकार !

तुम्हें कोसने के लिए खुद को कोसते हैं हम,
और वहाँ बेरुखी से खुश होते हैं सरकार !

अपने अरमानों को इतना ज़ब्त किया है हमने,
क्यों अश्कों को ज़हर बनाते हैं सरकार !

टूटे हुए दिल से रूखे लबों पर हंसी लाते हैं,
क्यों हंसते को रुलाते, फिर हंसाते हैं सरकार !

हमें भी रंज हो जिस बात, पर तड़पे फिर रात भर
खता करवा के गिला क्यों करवाते हैं सरकार !

आशियाने में मेरे तनहा सी उदासी है,
क्यों नहीं इसे अपनी सादगी से सजाते हैं सरकार!!

शायद एक नज़्म

खो कर खुदी, ढूंढ रहा हूँ तुमको मैं
पढ़ कर बदी, लिख रहा हूँ माज़ी मैं

आसान नहीं, इस दरिया में साहिल पाना
तूफानों में दरियादिल मौजों ने हमें संभाला

पलकों की कलम, अश्कों की स्याही और आंखों के सफे
बह गए हैं कितने ही अफ़साने, अनसुने और अनकहे

कोहरे का सूरज बनो, इन सर्दीली सुबहों में
थरथरायेँ बेजार होंठ, तुम्हे पुकारने के लिए

दर्द तो तनहा झेल जाती है, मेरी खूंखार खुद्दारी
ख़ुशी से नाचता मन महरूम रहे, तालों से तुम्हारी।

Saturday, October 27, 2007

बडे दिनों बाद...

लिखूं कुछ! खूबसूरत चेहरों के बारे में या फिर खूबसूरत दिलों के बारे में। क्या दोनों एक दूसरे के पूरक नहीं होते हैं? अभी तक तो यही ही पाया है, हाँ अगर आप खूबसूरती को उसी तरह समझते हों, जिस तरह मैं या कई और सारे लोग, कवि और लेखक समझते आये हैं। दिल खूबसूरत हो तो चेहरे पर भी वही नक्श उभार देता है। चेहरा खूबसूरत हो तो दिल भी थोडा खूबसूरत हो ही जाता है। यह भी हो सकता है कि मेरी खूबसूरती की परिभाषा कुछ अलग हो और इसी सिद्धांत के अनुसार हो।
जितनी खूबसूरती सादगी में पायी है, उतनी कहीं और नहीं पायी। किसी भी चीज़ में, घरों में, फूलों में, बागों में, नज़ारों में, आदमियों में , औरतों में, हर कहीं। जो जितना सादा और प्राकृतिक है, उतना ही खूबसूरत है। प्रकृति ने जो कुछ भी बनाया है, इतना खूबसूरत बनाया है कि कुछ लोगों को, कम से कम हम जैसे लोगों को उससे ज़्यादा खूबसूरत कुछ लग ही नहीं सकता।
ऐसा है फिर। बडे दिनों के बाद कैसी बकवास निकल कर सामने आई है। कुछ आजाद महसूस कर रहा हूँ एक अच्छी शाम बिताने के बाद। और कुछ ध्यान में भी नहीं आ रहा लिखने लायक। ऐसा तो होगा नहीं कि कुछ लिखने को हो ही ना, फिर दिमाग काम क्यों नहीं कर पा रहा? शायद हमारा काम ही ऐसा है कि दिमाग के लिए यह सब बकवास सोचने के लिए जगह ही नहीं बचती। हाँ, आप जबरदस्ती करिये तो निहायत घटिया और वाहियात किस्म की बकवास निकल कर बाहर आती है।
कुछ दिनों से पुराने गुजरे दिनों को याद कर कर के शामें गुजार रहा हूँ। अच्छा लगता है, लेकिन फिर बुरा भी लगता है कि वो दिन वापस क्यों नहीं आ सकते। आ तो नहीं ही सकते। जो हो नहीं सकता, मन वैसा ही क्यों चाहता है। जो हो सकता है, सामने होता दीख रहा हो, वो क्यों नहीं चाह पाता मन। कई सारे क्यों हैं, जिनका कोई जवाब नहीं होता, यह भी उनमें से एक 'क्यों' होगा।
तस्वीरों के सहारे उन लम्हों को वापस जीने की कोशिश सी होती रहती है। कुछ हल नहीं निकलता। बस होता यही है, कि अंत में यह सोचना पङता है कि अगर एक ही जगह सब साथ में होते तो कितने अच्छे दिन कटते।
जैसे आप अपने ना मिल सकने वाले प्यार को उम्र भर तलाश करते हैं, हर चीज़ में, हर जगह में ,हर लम्हे में, आप उस प्यार का अंश ढूँढते रहते हैं। कहीं भी उसको ना पा कर ऐसा लगने लगता है की दुनिया में प्यार बचा ही नहीं आपके लिए। जबकि प्यार आपके आस ही पास टहलकदमी कर रहा होता है।
और इस तरह से बात घूम फिर कर प्यार पर आ गयी है। इतनी जरुरी चीज़ है प्यार एक ज़िंदगी में। हाँ। नहीं। किसके पास मिलेगा जवाब इस सवाल के पास। खुद के पास। लेकिन खुद तो अभी प्यार ही ढूंढ रहा है। ढूँढते ढूँढते ही मिलेगा जवाब भी।